Wednesday, April 27, 2011

कुदरत के सामने बौना इंसान

(जापान की भूकंप त्रासदी पर विशेष)

संस्कृतियों के विकास से लेकर अब तक इंसानी जात लगातार कुदरत को अपने तरीके से संचालित करने की कोशिशें करती आई है। समय-समय पर कुदरत के तमाम रहस्यों से पर्दा उठाने के दावे भी किए जाते रहे हैं। मगर इतिहास गवाह है कि बीती शताब्दियों में ऐसे अनगिनत मौके आए हैं जब न केवल इंसान की तकनीकी तरक्की खोखली साबित हुई है, बल्कि अनेक संस्कृतियां समूल नष्ट होकर अतीत का हिस्सा बनने पर मजबूर हुई हैं। इंसान सदियों से ख़ुद को पृथ्वी का सबसे बुद्धिमान जीव कहता रहा है और दूसरे जीवों पर शासन करता आया है, मगर कुदरती विभीषिकाओं के आगम के समय इंसान के अलावा बाकी सभी जीव खतरे को पहले से भांपकर सुरक्षित स्थानों में चले जाते रहे हैं, वहीं कथित बुद्धिमान जीव इंसान कभी इस खतरे की आहट भी नहीं सुन पाया। कुदरत के द्वारा तमाम बार सचेत किए जाने के बावजूद इंसान कभी कुदरती नियम-कायदों से छेड़छाड़ करने से बाज नहीं आया और फलस्वरूप पृथ्वी को बार-बार तबाही के मंजर से दो-चार होना पड़ रहा है।
वह सुबह जो रोशनी नहीं, मौत लाई
तकनीक के मामले में दुनिया का तीसरा सबसे विकसित देश जापान शुक्रवार 11 मार्च को एक भीषण त्रासदी का गवाह बना। सुबह पौने तीन बजे, जब शायद सभी लोग नींद के आगोश में थे, एक ऐसा जलजला आया जिसने हजारों लोगों को नींद से जागने का मौका भी नहीं दिया। विश्व में अब तक का यह पांचवा सबसे बड़ा भूकंप था। शक्तिशाली भूकंप और उसके बाद आई प्रलयंकारी सुनामी ने तमामों को मौत की नींद सुला दिया। रिक्टर पैमाने पर 8.9 तीव्रता के भूकंप का केंद्र देश के उत्तरपूर्वी तट से 125 किलोमीटर दूर समुद्र में 10 किलोमीटर की गहराई में स्थित था। देश में पिछले 140 साल में आया यह सबसे भीषण भूकंप था। इसके असर से समुद्र में 33 फीट से भी ज्यादा ऊंची लहरें उठीं जिससे लगभग लाखों घर बर्बाद हो गए और सैकड़ों होटल जमींदोज़ हो गए।
दबे पांव आई मौत ने हर तरफ तबाही मचाई। तटीय इलाके में यात्रियों से भरी ट्रेनें लापता हो गईं, तेल रिफाइनरियों और स्टील प्लांटों में आग लग गई। घर, हवाई जहाज, बसें, कारें, बगीचे पानी के तेज बहाव में बहने लगे। परमाणु रिएक्टरों को आनन-फानन बंद करने की कोशिशें होने लगीं। बिजली आपूर्ति न होने से सब कुछ अस्त व्यस्त हो गया था। हर तरफ तबाही का मंजर दिखाई दे रहा था। जापान की सरकार ने लोगों को सुरक्षित स्थानों में जाने के लिए एलर्ट जारी कर दिया, मगर पूरे देश में कौन सा स्थान सुरक्षित है, यह शायद सरकार को भी नहीं पता था। भूकंप और सुनामी ने कुछ भी सलामत नहीं छोड़ा था। चारों ओर चीख-पुकार मची हुई थी। तबाही के बाद भी बच निकलने वाले खुशकिस्मत लोग मदद के लिए चिल्ला रहे थे। मगर कुदरत का कहर यहीं नहीं थमा, लगभग आधे घंटे बाद 7.4 तीव्रता का एक और भूकंप आया, जिससे वह सब भी तहस-नहस हो गया जो पिछले भूकंप में बच गया था। जब राहत और बचाव कार्य शुरू हुए तो एक और डरावना सच सामने आया, भूकंप और सुनामी के कारण कई परमाणु रिएक्टर के क्षतिग्रस्त और बेकाबू हो गए थे। फुकुशिमा का एक परमाणु रिएक्टर लगभग पूरी तरह अनियंत्रित हो गया। बिजली की आपूर्ति न हो पाने के कारण रिएक्टरों का कूलिंग सिस्टम पूरी तरह ध्वस्त हो गया था और वहां आग धधक उठी, नतीजतन रिएक्टरों का वह हिस्सा पिघलना शुरू हो गया जहां परमाणु ईंधन होता है। हालांकि, रिएक्टरों में लगी आग को बुझाने के लिए वैकल्पिक इंतजाम किए गए, समुद्र के पानी को वहां तक पहुंचाया गया, हेलीकॉप्टरों से पानी बरसाया गया, मगर ये कोशिशें नाकाफी थीं। रिएक्टरों में एक के बाद एक धमाके होने लगे और इसके बाद तबाही की रफ्तार तेज हो गई। रेडिएशन फैलने के कारण मौत का तांडव और भयावह हो गया। मरने वालों की संख्या 10 हजार के पार पहुंच गई और यह संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी। रेडिएशन से अकेले मियागी शहर में ही लगभग ढाई हजार लोग एक साथ काल के गाल में समा गए। डेढ़-दो हफ्ते में रिएक्टरों की आग में किसी तरह से काबू पाया जा सका, मगर तब तक इनसे निकले रेडियोऐक्टिव धुएं ने वातावरण में ऐसा जहर घोल दिया था जिसका असर जापान ही नहीं, बल्कि आस-पास के देशों में भी देखने को मिल रहा है। जापान के अस्पतालों में रेडिएशन के कारण बुरी तरह प्रभावित हुए लोगों की भारी तादाद मौजूद है और प्रभावितों का आना अभी भी जारी है। भूकंप और सुनामी के कारण पूरे जापान में लगभग 20 हजार लोगों की मौत हो चुकी है और लगभग इतने ही लापता भी हैं, तकरीबन 65 लाख घर तबाह हो चुके हैं। तबाही की भयानकता का अंदाजा लगाने के लिए शायद इतने आंकड़े काफी हैं।
पहले मौत का तांडव, फिर हालात बद से बदतर
जापान सरकार ने भूकंप और सुनामी की तबाही से बच गए लोगों से सुरक्षित स्थानों में चले जाने का आग्रह किया है, मगर लोगों को सुरक्षित स्थानों का पता-ठिकाना ढूंढ़ने में खासी दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है। रेडिएशन के खतरे के डर से लगभग समूचा जापान और आस-पास के कई देश खासे सहमे हुए हैं। सरकार ने भी यह घोषित कर दिया है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापान पर आया यह सबसे बड़ा संकट है। जापानी समाचार एजेंसी क्योदो के अनुसार आपदा के कारण लाखों लोगों को अपने घरों को छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा है और हजारों लोग अभी भी लापता हैं। लाखों लोगों के पास खाने-पीने और छत का संकट है। हालांकि जापान सरकार ने कई जरूरी कदम उठाए हैं, मगर हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि इनके नियंत्रण में शायद महीनों और सालों का वक्त लगेगा।
रेडिएशन ने रोक दी है जिंदगी की रफ्तार
दुनिया के विकसित देशों में से एक जापान भूकंप और सुनामी के लिए तो हरदम तैयार रहता है, मगर एटमी खतरे के लिए शायद तैयार नहीं था। पहले भूकंप और सुनामी ने जमकर तबाही मचाई, जो कुछ बचा था उसे रेडिएशन का दंश झेलना पड़ रहा है। इधर से उधर भागते भूखे-प्यासे लोगों को सरकार की ओर से सावधान किया जा रहा है कि खाने-पीने की किसी भी चीज का सेवन जांच के बिना न करें, वह चीज रेडिएशन का शिकार हो सकती है। और तो और लोगों को रेडिएशन की जांच के लिए भी जगह-जगह पर रुकना पड़ रहा है। ऐसे में पहले से परेशान जनता को और भी दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है। ऐसा किया जाना भी जरूरी है, वर्ना तबाही का मंजर और भी भयावह हो सकता है। भूकंप की आपदा से बच निकलने की कोशिश में जुटे लोगों पर रेडियशन कहर और खौफ बन कर टूट रहा है। आपदा के कारण जापान के लोगों का दैनिक जीवन पटरी से उतर गया है। कुछ भी पहले जैसा नहीं रह गया।
शव दफनाने को कम पड़ गए ताबूत
भूकंप और सुनामी की विभीषिका का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यहां मारे गए लोगों के लिए ताबूतों की कमी पड़ गई। राहत कार्य में लगे एक अधिकारी के अनुसार देश भर में शव दफनाने वाली संस्थाओं से ताबूत मांगे गए हैं लेकिन, ताबूत बेहद कम मिल पा रहे हैं। मृतकों की संख्या इतनी ज्यादा होने के कारण उन्हें दफनाना एक बड़ी चुनौती है। अधिकारी ने बताया कि एक दिन में औसतन 20 शव ही दफनाए जा पा रहे हैं, जबकि मृतकों की संख्या इससे कई गुना ज्यादा है। प्रकृति के कहर से खुद को बचा पाने में सफल रहे जीवित बचे लोगों को खाने की चीजें और पीने के पानी के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। हताहत लोगों की संख्या इतनी ज्यादा है कि सभी तक सरकारी मदद पहुंचा पाना मुश्किल हो रहा है। राहत और बचाव कार्य में जुटी टीमों की मांग भी पूरी नहीं हो पा रही। केवल 10 प्रतिशत सामान की आपूर्ति हो पा रही है।
हर तरफ है दर्द का मंजर
भूकंप और सुनामी के बाद हर एक जापानी सहमा हुआ है। तमामों ने अपने सगे-संबंधियों को खो दिया और बहुतों खुद ही असमय मौत का शिकार हो गए। दर्द का आलम यह है कि कई परिवारों में तो शवों पर विलाप करने वाला भी कोई नहीं बचा। ऐसे हृदय विदारक दृश्य देखकर राहत और बचाव कार्य में जुटे विदेशी लोग भी खुद को रोने से नहीं रोक पा रहे। जापान के ऊपर आए इस महासंकट में लगभग हर सक्षम देश मदद के लिए आगे आ रहा है, मगर रेडिएशन के डर के कारण इस काम में खासी दिक्कत पेश आ रही है।
साइकिल पर सवार होकर घर पहुंचने की कोशिश
टोक्यो और उसके उपनगरों में साइकिलों की बिक्री बढ़ गई है। भूकंप के कारण रेल, सड़क और हवाई यातायात पूरी तरह ठप हो जाने के कारण जनजीवन थम गया है। ऐसे में लोग अपने घरों तक पहुंचने के लिए साइकिलों का सहारा ले रहे हैं। खाने-पीने की चीजों की किल्लत के बावजूद लोग साइकिल से ही लंबी दूरी तय करके अपने घर और अपने परिवार तक पहुंचने की कोशिशें कर रहे हैं। इस काम में कई स्वयं सेवी संगठन भी उनकी मदद के लिए आगे आए हैं।
रेडिएशन का शिकार हो रहा समुद्र का पानी
फुकुशिमा के परमाणु संयंत्र के पास समुद्र के पानी में रेडियोऐक्टिव पदार्थों की मात्रा सामान्य से लगभग डेढ़ हजार गुना बढ़ गई है। इससे संयंत्र के 20-30 किलोमीटर की परिधि में रहने वाले लोगों पर रेडिएशन का खतरा पैदा हो गया है। समुद्र की दिशा से आ रही हवाएं लोगों को बीमार बना रही हैं। सुरक्षा एजेंसियों ने इस परिधि में रहने वाले लोगों से क्षेत्र को खाली करने को कहा है। प्रदूषित पानी से बचाव के उपाय तलाशे जा रहे हैं।
भूकंप प्रभावितों से घर न लौटने की अपील
भीषण भूकंप और सुनामी से फुकुशिमा प्रांत में बेघर हुए लोग घर लौटना चाहते हैं, मगर परमाणु संकट का हवाला देकर सरकार ने उन्हें ऐसा न करने को कहा है। सरकार का कहना है कि घर लौटने पर उनके स्वास्थ्य को खतरा हो सकता है। इस बीच तमाम लोग अपने-अपने घर वापस आने की कोशिशें कर रहे हैं और अपने उजड़े आशियानों को फिर से रहने लायक बनाने का प्रयास कर रहे हैं। सरकार ने प्रभावित लोगों से अपील की है कि बिना अनुमति के वे अपने घरों को न लौटें।
धुरी से चार इंच खिसक गई धरती
भूकंप और उसके बाद की सुनामी इतनी भयानक थी कि पृथ्वी अपनी धुरी से खिसक गई और पृथ्वी की अपनी धुरी पर चक्कर लगाने की गति भी बढ़ गई। वैज्ञानिकों का कहना है कि इससे पृथ्वी का दिन थोड़ा सा छोटा हो गया है। अमेरिकन जियोलॉजिकल सर्वे में भूभौतिकी वैज्ञानिक केननथ हडनट के अनुसार जापान के जियोस्पेटिकल इंफॉर्मेशन अथॉरिटी का मानचित्र देखने पर पता चलता है कि इस बड़े भूकंप ने पृथ्वी को अपनी धुरी से लगभग चार इंच खिसक गई है। नासा के भूभौतिकी वैज्ञानिक रिचर्ड ग्रास के अनुसार भूकंप के बाद से पृथ्वी की अपनी धुरी पर चक्कर लगाने की गति 1.6 माइक्रो सेकेंड बढ़ गई है, जिससे दिन पहले की अपेक्षा थोड़ा सा छोटा हो गया है। भूकंप इतना तेज था कि इससे जापान का एक द्वीप अपनी जगह से हिल गया है।
भूकंप से निपटने में सबसे ज्यादा सक्षम है जापान
मौत का नंगा नाच देखने के लिए मजबूर होने वाला देश जापान तकनीक के मामले लगभग पूरी दुनिया पर राज करता है और घोषित रूप से भूकंप से निपटने में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा सक्षम देश है। जापान में भूकंप का आना कोई नई बात नहीं है। भूकंप के लिहाज से जापान पूरे विश्व में सबसे ज्यादा संवेदनशील देश है और इसीलिए इस देश ने इस आफत से निपटने की अत्याधुनिक तकनीकें विकसित की हैं। जापान में बच्चे-बच्चे को अचानक आने वाले भूकंप और सुनामी से निपटने का प्रशिक्षण दिया जाता है। जैसे ही स्कूल में खतरे की घंटी बजती है, बच्चे मलबे में दबने से बचने के लिए अपनी डेस्क(मेज) के नीचे छिप जाते हैं और भूकंप के रहने तक मेज के पायों के बीच खुद को जकड़े रहते हैं। जापान में बनने वाली छोटी से छोटी इमारत को भूकंपरोधी बनाया जाता है। इन इमारतों की नींव जमीन के नीचे बहुत ही गहरी होती है। इसके अलावा इनमें लोहे की सरियों का इस्तेमाल सामान्य से अधिक होता है। जापान में हर घर और ऑफिस में भूपंक के लिए इमरजेंसी किट रहती है, जिसमें खाने की सूखी चीजें, पीने का पानी और दवाएं रहती हैं। स्कूल में बच्चों को भूकंप से बचने के लिए हर महीने अभ्यास कराया जाता है। स्थानीय अग्निशमन विभाग भी भूकंप आने पर आग लगने की स्थिति से निपटने के लिए बच्चों को बाकायदा ट्रेनिंग देते रहते हैं। जापान में जैसे ही भूकंप आते हैं, सारी सरकारी संस्थाएं सक्रिय हो जाती हैं। रेडियो और टेलीविजन समेत सारे माध्यम अन्य प्रसारण बंद कर देते हैं। इस दौरान सिर्फ भूकंप और सुनामी से निपटने के उपाय बताए जाते हैं।
तकनीक ही बन गई विनाश का सबब
जापान में ज्यादातर बिजली की आपूर्ति परमाणु बिजलीघरों में पैदा होने वाली बिजली से होती है, यहां परमाणु बिजलीघरों की संख्या भी अन्य देशों की तुलना में ज्यादा है। मगर इस पलयंकारी भूकंप और सुनामी के बाद से बिजली आपूर्ति पूरी तरह ठप हो गई। यहां तक कि खुद परमाणु रिएक्टरों को भी बिजली नहीं मिल पाई, नतीजतन कुछ परमाणु रिएक्टरों के कूलिंग सिस्टम फेल हो गए और तापमान बढ़ने के कारण उनमें विस्फोट होने लगे। विस्फोट के बाद फैलने वाले रेडिएशन ने सबको मौत बांटी। वे परमाणु रिएक्टर जिन पर जापान नाज़ करता था और बाकी देश ईर्ष्या करते थे, वही रिएक्टर अब जापान को उजाड़ने में लगे हुए थे। जिन रिएक्टरों को सुरक्षित बचा लिया गया वहां पर बिजली उत्पादन का कार्य तुरंत बंद करने के आदेश जारी किए गए और वे अभी तक बंद ही हैं। जापान सहित 20 पड़ोसी देशों में परमाणु एलर्ट जारी कर दिया गया है। रेडिएशन से हुई तबाही को देखकर तमाम सालों से व्यक्त की जा रही यह आशंका एकदम सच लगने लगी है कि इंसान का अनियंत्रित वैज्ञानिक विकास ही एक दिन धरती के विनाश का कारण बनेगा।
परमाणु रिएक्टरों को मिली थी चेतावनी
जापान को दो साल पहले अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) ने परमाणु संयंत्रों को लेकर चेतावनी दी थी। एजेंसी ने कहा था कि जापान में परमाणु संयंत्रों का रख-रखाव ऐसा नहीं है कि भीषण भूकंप की मार झेल सके। लंदन के अखबार द संडे टेलीग्राफ के अनुसार दिसंबर 2008 में आईएईए के अधिकारियों ने जापान के परमाणु संयंत्रों का निरीक्षण किया था। एजेंसी ने कहा था कि जापान में भूकंप के बचाव के उपायों को पिछले 35 सालों में सिर्फ तीन बार जांचा गया है। उस दौरान जापान का ध्यान इस ओर दिलाया गया था कि बीते कुछ समय में आए भूकंप परमाणु संयंत्रों की सह सकने की क्षमता से ज्यादा तीव्रता वाले रहे हैं। उस समय जापान ने यह वादा किया था वह अपने सभी परमाणु संयंत्रों में सुरक्षा उपाय और मजबूत करेगा और फुकुशिमा संयंत्र में इमरजेंसी रिस्पॉन्स सेंटर बनाएगा। फुकुशिमा संयंत्र में रिक्टर पैमाने पर 7 तीव्रता तक का भूकंप झेलने की क्षमता है मगर यह भूकंप 8.9 तीव्रता वाला था। एक बात और गौर करने वाली है कि 2006 में जापान सरकार ने अपनी एक अदालत के उस आदेश को मानने से इनकार कर दिया था जिसमें देश के पश्चिम में स्थित एक परमाणु संयंत्र को बंद करने को कहा गया था। अदालत का कहना था कि यह संयंत्र केवल 6.5 तीव्रता तक का भूकंप सह सकता है, ऐसे में लोगों के रेडिएशन से प्रभावित होने का खतरा बहुत अधिक है। जापानी परमाणु और औद्योगिक सुरक्षा एजेंसी का दावा इसके उलट था, इसलिए जांच के बाद जापान सरकार ने इस फैसले को पलट दिया था।
स्वास्थ्य पर रेडिएशन के खतरे
रेडिएशन का स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव होता है। रेडिएशन से संक्रमित होने के शुरुआती संकेत ये हैं कि इसमें नाक बहती है, उल्टी-दस्त लग जाते हैं, व्यक्ति के शरीर में पानी कम हो जाता है, संक्रमण के कुछ ही मिनटों में ऐसा होने लगता है। व्यक्ति इन लक्षणों से तत्काल उबर भी सकता है और स्वस्थ दिखने लगता है, मगर बाद के महीनों में ये संकेत उभरने रहते हैं और धीरे-धीरे व्यक्ति की भूख खत्म हो जाती है, वह थका रहने लगता है। आगे चलकर बुखार, जुकाम, उल्टी, डायरिया से ग्रस्त रहने लगता है। अंततः स्वास्थ्य प्रतिरक्षा तंत्र नष्ट हो जाने से उसकी मौत तक हो सकती है। रेडिएशन के प्रभाव से व्यक्ति की त्वचा खराब हो जाती है।
अमेरिकन थायरॉयड एसोसिएशन के अनुसार रेडिएशन का सबसे ज्यादा प्रभाव थायरॉयड ग्लैंड्स पर पड़ता है। ये रेडियोऐक्टिव पदार्थों के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनशील होते हैं। अतः रेडिएशन से थायरॉयड कैंसर का खतरा पैदा हो जाता है। बच्चे और युवा इसके सबसे आसान शिकार होते हैं। 40 के पार के लोगों में यह खतरा कम होता है। रेडिएशन के दौरान रेडियोऐक्टिव आयोडीन हवा में फैल जाता है, जो कि बेहद खतरनाक होता है। इसका मुकाबला करने के लिए पोटैशियम आयोडीन की गोलियां दी जाती हैं। पोटैशियम आयोडीन थायरॉयड ग्लैंड्स को रेडियोऐक्टिव आयोडीन ग्रहण करने से रोकता है।
विशेषज्ञों के अनुसार 98 प्रतिशत मामलों में लोग अप्रत्यक्ष रूप से रेडिएशन का शिकार होते हैं, यानी रेडिएशन से संक्रमित खाद्य पदार्थों के सेवन से रेडिएशन ज्यादा फैलता है। दुग्ध पदार्थों में रेडिएशन का असर सबसे ज्यादा होता है। दूध देने वाले जानवर जब रेडिएशन से संक्रमित घास या अन्य पदार्थ खाते हैं तो उनका दूध संक्रमित हो जाता है और इसका प्रयोग करने वाला व्यक्ति भी रेडिएशन का शिकार हो जाता है।
जापान में क्यों आते इतने ज्यादा भूकंप
भूकंप जापान के लिए कोई नई और अनोखी घटना नहीं है। भूकंप के लिहाज से जापान दुनिया का सबसे ज्यादा संवेदनशील देश है। अकेले जापान में पूरे विश्व के ऐसे 20 प्रतिशत भूकंप आते हैं जिनकी तीव्रता छह या इससे अधिक होती है। जापान में सर्वाधिक भूकंप आने का कारण यह है कि पृथ्वी के महाद्वीपों और महासागरों का निर्माण जिन ठोस परतों से हुआ है, वे जापान के स्थल क्षेत्र के नीचे जुड़ती हैं। जब-जब इन परतों में हलचल होती है, तब-तब जापान की धरती हिलती है। परतों का संधि स्थल होने के कारण इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में ज्वालामुखी हैं। जापान में इसीलिए गर्म जल के स्रोत भी सर्वाधिक हैं। प्रशांत माहासागर के इस क्षेत्र को सक्रिय भूकंपीय गतिविधियों के कारण ‘पैसिफिक रिंग ऑफ फायर’ कहा जाता है। अपने ज्ञात इतिहास में जापान ने भूकंप के बाद रिकॉर्ड दो सौ से ज्यादा बार सुनामी का सामना किया है।
जापान में आई यह भीषण आपदा यूं तो बेहद विनाशकारी है, लेकिन यह पहली बार नहीं है जब कुदरत ने धरती पर अपना कहर ढाया हो। सबसे चौंकाने वाली और दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि हम इंसान इन विभीषिकाओं के असर से बाहर निकलने का प्रयास तो करते हैं और एक समय के बाद बाहर भी निकल जाते मगर इन आपदाओं के कारणों को जानने और मानने का प्रयास गंभीरता से नहीं करते। कुदरत द्वारा बार-बार चेताए जाने के बावजूद वैज्ञानिक तरक्की की आड़ में हम कुदरत के हर कार्य में दखलंदाजी करते जा रहे हैं। हो सकता है कि हममें से तमाम लोगों ने ऐसी किसी प्राकृतिक आपदा में अपने किसी सगे-संबंधी को न खोया हो, मगर यदि हम ऐसी आपदा झेलने वाले लोगों से मिलें तो शायद उस दर्द को समझ पाएंगे और हम इंसानों को अपनी गलतियों का एहसास भी जरूर हो जाएगा। हमने अपने आस-पास के वातावरण को काफी हद तक खराब कर लिया है और इस काम में अथक रूप से लगे हुए हैं, लेकिन अगर हमने अपनी हरकतों को अभी भी न सुधारा तो शायद आने वाले कल में ऐसा करने का न तो वक्त बचेगा और न ही वजह।

Wednesday, March 16, 2011

´सोच´ की दुकान

सोचना, हमारे दोस्त अक्लमंद का पुश्तैनी पेशा है। इनके बाप-दादा और उनके पहले की कई पीढ़ियां भी चिरकाल से सोचने की दुकान चलाते आए हैं। इनकी पिछली पीढ़ियों के लोग गांधी, नेहरू, पटेल, लोहिया आदि को सोच डिलीवर करते थे। तब से लेकर अब तक इनकी सोच पीढ़ी-दर-पीढ़ी तमाम चरणों से गुजरते हुए बेहद परिष्कृत हो चुकी है।
पिछले हफ्ते ही अक्लमंद ने अपनी सोच की दुकान को फिर से डेंट-पेंट करवाया है। दुकान के बाहर एक बोर्ड भी लगाया गया है, जिस पर लिखा है, ‘नई सोच की सबसे पुरानी दुकान’। अक्लमंद साहब ने दुकान में ही एक शोकेस भी बनवाया है, जिसमें सोच के क्षेत्र में उनके दादा-परदादा के द्वारा हासिल किए हुए मेडल और सनदों को ससम्मान रखा गया है।
सोच की इस प्रतिष्ठित दुकान में बिकने वाली सोच की रिप्लेसमेंट की फुल गारंटी रहती है। दुकान में विभिन्न रेटों की सोचें उपलब्ध हैं। मौजूदा रेट लिस्ट के अनुसार मंहगाई से निजात पाने के उपाय सुझाने वाली सोच सबसे मंहगी है और पारिवारिक समस्याओं को सॉल्व करने की अचूक सोच सबसे कम दाम पर मिल रही है। त्योहारों के सीजन में यहां विशेष ऑफर भी रहता है, जिसमें लकी ड्रॉ में जीतने वाले भाग्यशाली ग्राहकों को सोच मुफ्त में दी जाती है।
इस दुकान की सोच की गुणवत्ता किसी परिचय की मोहताज नहीं है। देश के कोने-कोने से आने वाले लोग इनकी कारगर सोच की एवज में मुंह मांगे दाम चुकाकर जाते हैं। अक्लमंद का दावा है कि बाबा आरामदेव इनके नियमित ग्राहक हैं। बाबा ने अब तक जो भी प्रसिद्धि हासिल की है, उन सभी में इनकी दुकान से खरीदी हुई पब्लिक-प्रसन्नीकरण सोच का अहम रोल है। अक्लमंद तो यहां तक कहते हैं कि तमाम लेखकों और राजनेताओं ने रातों-रात सुर्खियों में आने के लिए इसी दुकान की डेहरी पर मत्था टेका है।
हालांकि अक्लमंद की कामयाबी से जलने वाले लोग हरदम कहते रहते हैं कि अक्लमंद देश की जनता को मानसिक रूप से पंगु बना रहा है और बिना कोई काम किए अच्छी रकम ऐंठ रहा है। मगर इन बेबुनियाद दावों से अक्लमंद की लोकप्रियता पर कोई फर्क नहीं पड़ता। अक्लमंद का कहना है हमारी सोच के लाखों ग्राहक ही हमारी कामयाबी के सबसे बड़े सबूत हैं।
अक्लमंद के अलावा भी कुछ लोगों ने सोच की दुकानें खोलीं मगर वो लोग इस धंधे से दुकान की लागत भी नहीं निकाल पाए। वो लोग वह विश्वास नहीं जीत पाए जो अक्लमंद ब्रदर्स को प्राप्त है। अक्लमंद बंधुओं ने लगातार 25वीं बार ‘ऑल टाइम हिट थिंकिंग’ का अवार्ड जीतकर इतिहास रचा है। अक्लमंद साहब अब अपने कारोबार को ग्लोबल स्तर पर फैलाने का प्लान कर रहे हैं। अंदर के लोगों से पता चला है कि अगले साल ही इस दुकान की शाखाएं न्यूयॉर्क और लंदन में भी खुल जाएंगी। इसके लिए वहां जमीन का जुगाड़ भी कर लिया गया है। अब वह दिन दूर नहीं जब दुनिया के सभी देश उम्दा सोच के लिए आदरणीय अक्लमंद के सामने हाथ फैलाए खड़े नजर आएंगे।
फिलहाल उनकी दुकान में ऑफर आया है, ‘एक के साथ एक सोच मुफ्त’। तो आइए चलते हैं, ऑफर का लाभ उठाने।

कलमाड़ी, तुसी ग्रेट हो...

कॉमनवेल्थ घोटाला स्पर्धा में मिस्टर कलमाड़ी सबसे बड़े खिलाड़ी बनकर उभरे। उन्होंने सोने-चांदी, हीरे-मोती, नकदी आदि के तमाम ज्ञात-अज्ञात तमगे बटोरकर नए कीर्तिमान स्थापित किए और सबको अचंभित कर दिया। मिस्टर कलमाड़ी ने ऐसी अकल मारी कि बाकियों ने ‘हारे को हरिनाम’ से संतोष कर लेने में ही अपनी भलाई समझी।
नंबर वन खिलाड़ी मिस्टर कलमाड़ी अपने खेल में इस तरह तल्लीन हुए कि समापन समारोह में पूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम को अबुल कलाम आजाद कह मारा। और तो और, वहां मौजूद तमाम गणमान्य व्यक्तियों ने उनकी इस नादानी को हंसकर किनारे कर दिया। पूछने पर गणमान्यों ने बताया कि मिस्टर खिलाड़ी अपने खेल में इस कदर रमे हुए हैं कि अन्य चीजों के प्रति वह समदृष्टा हो गए हैं। देश रूपी मछली की प्रतिष्ठा रूपी आंख पर निशाना साधते समय आस-पास की फालतू वस्तुएं उनका ध्यान भंग नहीं कर पाईं और वह लक्ष्य भेदने में सफल रहे। खेलों में मुकाबलों के दौरान जब दूसरे खिलाड़ी एड़ी-चोटी का जोर लगाकर नंबर वन बनने के लिए पसीना बहा रहे थे, उस समय खिलाड़ी द ग्रेट, वन मैन ऑर्मी मिस्टर कलमाड़ी ने अकेले दम पर मोर्चा संभाले रखा। जहां बाकी खिलाड़ी कुछेक पदकों पर ही हाथ साफ कर पाए, वहीं इस खिलाड़ी ने खेल प्रशंसकों की उम्मीदों से कहीं आगे का प्रदर्शन करते हुए अपनी झोली फुल की।
खिलाड़ी श्रेष्ठ ने विशेष कौशल का एक और प्रदर्शन किया। उन्होंने खेल की तैयारियों के लिए हो रही खुदाई को पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की खुदाई के रूप प्रचारित करवाया, जिससे बाकी प्रतियोगियों को सचेत होने का मौका भी न मिले। वैसे खेल विश्लेषकों का कहना है कि मान्यवर खिलाड़ी ने मेन टूर्नामेंट में अपने उम्दा प्रदर्शन को सुनिश्चित करने के लिए तमाम क्षेत्रीय और राष्ट्रीय टूर्नामेंटों में जमकर नेट प्रैक्टिस की है। ये अलग बात है कि उस दौरान उनकी खेल प्रतिभा को किसी पारखी नजर ने नहीं देखा। मगर, कहते हैं ना कि ‘सब दिन जात न एक समान’। अब वह किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। सब तरफ उनके टायलेंट के चर्चे हो रहे हैं। उन पर आधारित फिल्मी गीत ‘कलमाड़ी का खेलना, खेल का सत्या.....’ लोगों की जुबान पर है। उनकी विनम्रता, सुशीलता, सरलता और महानता भी देखते ही बनती है। कभी कहीं पर भी वह सम्मान प्राप्त करने खुद नहीं जाते। उन्हें पता है कि सम्मान देने वाला ये कहते हुए खुद-ब-खुद उनके घर चला आएगा कि ‘कलमाड़ी साहब, तुसी ग्रेट हो, तोहफा कुबूल करो’।
इंटरनेट सर्च इंजन टूगल ने ये दावा किया है कि पिछले हफ्ते नेट यूजर्स ने जिस शीर्षक को सबसे ज्यादा सर्च किया, वह था ‘कलमाड़ी के कारनामे’। इससे साफ जाहिर है कि कलमाड़ी साहब अब महज हमारे देश की सेलिब्रिटी ही नहीं हैं, दुनिया के बाकी हिस्सों में भी उनके मुरीदों की अच्छी खासी तादाद है। अंतरराष्ट्रीय घोटाला महासंघ ने इस खिलाड़ी को ‘परफॉर्मर ऑफ द इयर’ का पुरस्कार देने की घोषणा की है। भई, हम तो यही कहेंगे कि,
‘यू आर वेरी ग्रेट, मिस्टर कलमाड़ी।
न भूतो न भविष्यति तुम सम खिलाड़ी।। ’

Monday, August 9, 2010

'शब्द की शक्ति' अथवा ' इसे भुलाना आसान नहीं'



बात तकरीबन सात महीने पहले की है। उन दिनों मैं भोपाल के एक हिंदी दैनिक में काम करता था। हर रोज़ की तरह ही एक दिन जब मैं अपने दफ्तर पहुंचा तो मुझे बताया गया कि एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति मुझसे मिलने के लिए तकरीबन तीन घंटे से प्रतीक्षा कर रहा है। उस व्यक्ति से मिलने के पहले मुझे इस बात का कतई अंदाजा नहीं था कि यह मुलाकात मुझे एक चौंकाने वाला अनुभव कराएगी और ताउम्र याद रहेगी।

एकदम साधारण वेशभूषा के उस व्यक्ति ने मुझसे मिलते ही मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर चूम लिया। मैं फटी आंखों से उसे देख रहा था। उसने कहा, “मैं आपके बगल में बैठने की हैसियत नहीं रखता। इसलिए खड़ा ही रहूंगा। मैंने जब से भोपाल गैस त्रासदी पर आपकी कविता पढ़ी है, तब से ही आपसे मिलने के लिए व्याकुल था।” मुझसे तिगुनी उम्र का व्यक्ति मुझे आप-आप कह रहा था इसलिए मैं बोल पड़ा कि कृपया मुझे ‘तुम’ ही कहें। वह मान गया और आगे कहना शुरू किया, “वैसे जिस अखबार में तुम्हारी कविता छपी थी, उसका मैं नियमित पाठक नहीं हूं मगर कविता पढ़ने के बाद से मैं इस उम्मीद से यह अखबार जरूर देख लेता हूं कि हो सकता है कि फिर कोई दिल की बात छपी हो। मेरा नाम जगतराम मारण है। गैस त्रासदी में मैंने अपने दो बेटे, पत्नी और एक आंख खो दी। मेरा बड़ा बेटा अगर आज जीवित होता तो शायद तुम्हारी ही उम्र का होता।”

मैंने हिम्मत करके बीच में टोका, “ जी, मेरी उम्र चौबीस साल है और गैस त्रासदी को हुए पच्चीस बरस बीत चुके हैं। मेरा मतलब, उस वक्त तक मैं पैदा नहीं हुआ था।” उस व्यक्ति ने आगे कहा, “बेटा, हो सकता है कि पिछले जन्म में तुम मेरे बेटे ही रहे हो। मैं बहुत कोशिश करके अपने बेटों और बीवी को भूलने लगा था मगर तुमने जिस तरह से गैस त्रासदी को जीवंत किया है उससे मेरी चोटिल रगें फिर से दुखने लगी हैं और यह दर्द अब शायद ही कभी खत्म होगा। बेटा, तुम मेरी बातों का बुरा मत मानना।” सूचना क्रांति के उफान के इस दौर के बावजूद उसने न तो मुझसे मेरा मोबाइल नंबर मांगा और न ही अपना नंबर मुझे दिया। मुझे इससे काफी हैरानी हुई मगर शायद उसके पास मोबाइल था भी नहीं। उसके पास मोबाइल होने की कोई वजह भी नहीं थी। अपनी बात कह कर वह व्यक्ति वहां से चला गया। उसे जाते हुए देख कर यूं लग रहा था कि जैसे वह मुझे कोई जरूरी चीज सौंपने आया था और इसके लिए वह बहुत दिनों से इंतजार भी कर रहा था।

उसके जाने के बाद मैं एकदम अधीर हो चुका था। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। बेशक, वह व्यक्ति मेरे लिए बेहद महत्वपूर्ण बन चुका था। इसके बावजूद उस दौरान मुझे यह समझ नहीं आया कि मैं उसकी बातों का कुछ जवाब दूं या उसे जाने से रोक कर उसका पता-ठिकाना पूछूं। थोड़ी देर तक स्तब्ध खड़े रहने के बाद मैं पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। उस व्यक्ति द्वारा कहा गया हर एक शब्द मेरे कानों में गूंज रहा था और अब तो तो उन शब्दों की ध्वनि पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा तीव्र और कर्कश हो गई थी। मैं अब के पहले कभी भी ऐसी किसी स्थिति से नहीं गुजरा था। मुझे यह एहसास बखूबी हो चुका था कि हर एक शब्द में एक विशेष शक्ति होती है और कई शब्द एक साथ मिल कर किसी को भी हिला कर रख सकते हैं।

मैं इसके पहले भी कई और मार्मिक कविताएं इसी शिद्दत के साथ लिख चुका हूं और उनके लिए मुझे तमाम तारीफें और बधाइयां भी मिली हैं मगर मुझे ऐसा एहसास पहले कभी नहीं हुआ था। ऐसी संतुष्टि और खुशी पहले कभी नहीं मिली थी। कविता लिखते समय मैंने यह एकदम नहीं सोचा था कि वह किसी के लिए इतनी असरदार होगी। यह अविस्मरणीय मुलाकात मुझे उस कविता की अहमियत और सार्थकता से रूबरू करवा रही थी।

मैं थोड़ा होश में आया तो दफ्तर के बाहर आकर बदहवास निगाहों से उस व्यक्ति को खोजने लगा। उसकी तलाश में आस- पास के क्षेत्र को पूरी तरह छान मारा मगर वह कहीं नहीं मिला। पेड़ों के नीचे, पान की दुकानों पर, चौराहे के प्रतीक्षालय और स्टेशन आदि तमाम जगहों में मैंने उसे खूब ढूंढ़ा, मगर वह व्यक्ति नहीं मिला। जाने क्यों मुझे यह लगने लगा था कि जैसे मैंने भी गैस त्रासदी की विभीषिका को झेला हो। मुझे उस व्यक्ति की वह बात एकदम सच लग रही थी कि शायद पिछले जन्म में मैं उसका बेटा था। लाख कोशिशों के बाद भी जब वह व्यक्ति नहीं मिला तो मुझे यह एहसास होने लगा कि जैसे वह कोई देवदूत या फरिश्ता था जो मुझे शब्द की शक्ति बताने आया था। शब्द की वह शक्ति जो अगर अपने रौद्र रूप में हो तो सिर्फ एक प्रहार से ही बड़े-बड़े शिलाखंडों को चकनाचूर कर सकती है और यदि अपने सरल और मृदु रूप में हो तो उन आंखों में भी आंसू आ जाएं जो मुद्दतों से सूखी पड़ी हों।

मुझे इस घटना ने पूरी तरह से झकझोर दिया था। शब्द के इस दिव्य रूप से अभीभूत मैं अपने दफ्तर की ओर लौटने लगा। पांव चलते जा रहे थे मगर मन उस दिलकश एहसास की तलाश में था जिस पर फिर एक ऐसी कविता का जन्म हो जाए जिससे मैं किसी के दर्द और आंसुओं को साझा कर सकूं।

Friday, January 22, 2010

मेरी जान कलम...

धोखों से भरी इस दुनिया में ये कलम ही साथ निभाती है।
मैं चाहूं अगर कुछ लिखना तो, चल देती है, चलती जाती है।।
मैं चला तो ये भी साथ चली, मैं गिरा तो थाम लिया इसने,
मैं हंसा तो ये खिलखिला उठी, रोऊं तो अश्क बहाती है।।
मैं चाहूं अगर कुछ लिखना तो, चल देती है, चलती जाती है...........
इस कलम से शोहरत मिली मुझे, लिख लिया तो राहत मिली मुझे।
कमजोर बहुत था इसके बिना, ये मिली तो ताकत मिली मुझे।।
है दिल भी यही, धड़कन भी यही, ये ही तो जीवनसाथी है।।
मैं चाहूं अगर कुछ लिखना तो, चल देती है, चलती जाती है...........
बंजर को सावन देती है, चिड़ियों को उपवन देती है।
अपने बदन के लहू से ये, शब्दों को जीवन देती है।।
छोटे या बड़े का भेद नहीं, ये सबको गले लगाती है।।
मैं चाहूं अगर कुछ लिखना तो, चल देती है चलती जाती है...........
चाहत की तहरीर लिखी, इसने हर दिल की पीर लिखी।
दुनिया को बनाने वाले ने, इससे सबकी तकदीर लिखी।।
मां की गोद का सुकूं है ये, या जैसे कि सोंधी माटी है।।
मैं चाहूं अगर कुछ लिखना तो, चल देती है, चलती जाती है...........
ये ना होती, क्या होता मैं, सूखी आंखों से रोता मैं।
ये है तो मुझे बेताबी है, ना होती तो चैन से सोता मैं।।
इससे कुछ ऐसा इश्क हुआ, कोई और चीज ना भाती है।।
मैं चाहूं अगर कुछ लिखना तो, चल देती है, चलती जाती है...........
मेरा तो घर-परिवार है ये, मेरा सारा संसार है ये।
ना मानो अगर तो कुछ भी नहीं, मानो तो बड़ी फनकार है ये।।
ये बच्चे की मुस्कान सी है, खुश्बू मे नहायी पाती है।।
मैं चाहूं अगर कुछ लिखना तो, चल देती है, चलती जाती है...........
ये ना मिलती तो किधर जाता, बोलो बनता कि बिगड़ जाता।
वादा था इसी का होऊंगा, वादे से कैसे मुकर जाता।।
मेरी जान है ये, इससे मेरी, हस्ती पहचानी जाती है।।
मैं चाहूं अगर कुछ लिखना तो, चल देती है, चलती जाती है...........

Tuesday, December 22, 2009

Jansatta Express : पत्रकारिता बनाम चाटुकारिता

नोटः प्रस्तुत आलेख भारत के प्रतिष्ठित न्जूज पोर्टल www.jansattaexpress.net पर भी उपलब्ध है।

चाटुकारिता, जिसे ठेठ भाषा में तेल लगाना भी कहते हैं, एक ऐसी अति वांक्षित योग्यता है जो पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रख रहे लोगों के लिए अकथित रूप से बेहद आवश्यक है। जिसे जितनी अच्छी तरह से तेल लगाना आता है, अधिकृत पत्रकारिता में उसकी तरक्की के विकल्प उतने ही ज्यादा होते हैं। इस कला के बिना कम से कम पत्रकारिता के क्षेत्र में टिक पाना तो लगभग असंभव होता है। यह महज एक अनुभव नहीं है। इस तथ्य को पूरे पत्रकारिता जगत में मौन स्वीकृति प्राप्त है। हर वो श़ख्स जो अपने शुरुआती दिनों तेल लगाना पसंद नहीं करता, वह सीनियर हो जाने पर अपने अधीनस्थों से तेल लगवाने का शौक जरूर रखता है।
पत्रकारिता के बाहरी रुतबे व कद को देखकर और उस पर आकर्षित होकर तमाम युवा पत्रकारिता को अपने कैरियर के रूप में चुनते हैं। देशभक्ति-भाईचारे और सहिष्णुता के भावों से लबरेज होकर वे पत्रकार बनने का सपना संजोते हैं मगर बाद में इसके (पत्रकारिता के) वर्तमान स्वरूप की सच्चाई से वाकिफ होकर उन्हें अपने आस-पास के वातावरण से घिन आने लगती है। काफी दिन तक वह युवा संघर्ष करता है और सिस्टम में बदलाव लाने की हरसंभव कोशिश करता है मगर हालात यह होते हैं कि सिस्टम में नीचे से ऊपर तक मौजूद तेल के शौकीन लोग हर कीमत पर इस सुख का आनंद लेना चाहते हैं। ऐसे में उक्त युवा इस वातावरण को समझने का प्रयास करते-करते न चाहते हुए भी उसमें ढल जाता है। सिस्टम बदलने का उसका सपना, सिर्फ सपना ही रह जाता है और उसमें वक्त गुजरने के साथ धूल की पर्त जमने लगती है। फलस्वरूप परिवर्तन का उसका सपना खामोशी से दम तोड़ देता है।
कुछ युवा तो अपने कैरियर के शुरुआत में कुछ दिनों तक यह समझकर भी अपने सीनियर या बॉस द्वारा आदेशित हर काम को खुशी से करते रहते हैं कि उन्हें इससे कुछ सीखने को मिलेगा। मगर इसके विपरीत सीनियर्स सिखाने के नाम पर उस जूनियर को अपना चपरासी समझने लगते हैं। कुछ समय बाद जब वह जूनियर उनके हर एक आदेश को मानने से मना करने लगता है तो फिर मन-मोटाव और टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कई बार तो संस्थान छोड़ने की भी नौबत आ जाती है।
एक बात और गौर करने वाली है कि जो लोग अपने प्रारंभिक दिनों में यह सहते हैं, वे सीनियर हो जाने पर दूसरों से (जूनियरों से) इसकी उम्मीद करते हैं। उनमें मन ही मन एक चिढ़ भरी रहती है जो धीरे-धीरे अवसाद का रूप अख्तियार कर लेती है।
पत्रकारिता जगत में अमूमन चाटुकारों को ही वेतनवृद्धि भी नसीब होती है, अन्यथा इस क्षेत्र में चाहे जितने दिन गुजर जाएं, वेतन उतना का उतना ही रह जाता है। बॉस के लुक की तारीफ, उसके लहजे की सराहना, उसके काम करने के ढंग की बड़ाई, हर बात में बॉस की जीहुजूरी और यह कहना कि मुझे तो आपके साथ काम करने में सबसे ज्यादा अच्छा लगता है, आदि कथन अखबारों और टीवी चैनलों के आफिसों में आम बातें हो गईं हैं। आधुनिक पत्रकारिता के गुणात्मक और चारित्रिक क्षरण की भी यही वजह है कि हम भविष्य में हो सकने वाले छोटे से फायदे के लिए हर वह बात स्वीकार कर लेते हैं जिसे हम एकदम पसंद नहीं करते।
कुछ युवा (नए पत्रकार) ऐसे भी होते हैं जो अपनी योग्यता को ही सर्वोपरि रखते हैं और किसी भी कीमत पर चाटुकारिता को बढ़वा नहीं देते। पहले तो तमाम उपाय करके उनके तरीके को बदलने की या उन्हें सिस्टम से बाहर कर देने की कोशिश की जाती है मगर फिर भी न झुकने पर आखिरकार उसके तेवरों को स्वीकार कर लिया जाता है और फिर उस युवा पत्रकार का सिक्का जम जाता है। तदुपरांत उस संस्थान का गुणात्मक सुधार होने लगता है।
पत्रकारिता को चाटुकारिता के चंगुल से अगर कोई छुड़ा सकता है तो वह है आज की युवा पीढ़ी। हम युवाओं को चाहिए कि हम बड़े-बुजुर्गों की काबलियत और उम्र का लिहाज तो करें मगर यदि कोई हमें अपना चाटुकार या वैचारिक चपरासी बनाना चाहे तो हम न सिर्फ उसका विरोध करें, बल्कि ऐसी तुच्छ मानसिकता के लोगों को मुंहतोड़ जवाब भी दें।
आइए! हम उठ खड़े हों उन लोगों के खिलाफ जो पत्रकारिता को अपने पैर की जूती समझते हैं। हमें सबक सिखाना होगा उन मुट्ठी भर लोगों को जो पत्रकारिता को जेब में भर कर टहलने का दावा करते हैं। क्योंकि यही वर्तमान समाज की जरूरत भी है मजबूरी भी।

Wednesday, December 2, 2009

वो बचपन के दिन...

बचपन में एक सवाल बहुत पूछा जाता था कि बड़े होकर क्या बनना चाहते हो? जवाब होते थे- डॉक्टर, इंजीनियर, पायलट......। लेकिन यही सवाल अगर अब पूछा जाए तो जवाब होगा कि माफ करें, हम बड़े होना ही नहीं चाहते थे। बचपन में बड़े होने की ललक, बड़े होने पर मिलने वाले झंझावातों से एकदम अनजान थी। शायद इसी कारण बचपन को जी भर के जी नहीं पाए और अब अफसोस के आंसू बहा रहे हैं। हमारा बचपन हमसे हाथ छुड़ाकर दूर चला गया और हमें न चाहते हुए भी उसे अलविदा कहना पड़ा। वजह कुछ भी हो मगर कभी-कभी यह महसूस होता है कि हमने खुद के साथ बहुत ज्यादती की। बचपन की चंद सुहानी यादों पर सब कुछ कुर्बान कर देने को जी करता है। मगर जिंदगी की उधेड़बुनें हमें बचपन की यादों में खो जाने के लिए कभी अकेला नहीं छोड़तीं। वर्तमान के झंझट और भविष्य की महत्वाकांक्षाओं ने कभी अतीत के बारे में ठीक से सोचने का मौका ही नहीं दिया। लेकिन चलिए, फिर भी कोशिश करते हैं। आइए कोशिश करते हैं, फिर उसी आयु वर्ग में शामिल होने की, जब हम सिर्फ अपनी सुनते थे। न किसी के दबाव का असर था और न कोई मजबूरी। वे दिन, जब सुबह उठते ही खेलकूद की योजना बनाते थे और स्कूल से आते ही योजनाओं के क्रियान्वयन में जुट जाते थे। मां के लाख मना करने पर भी पिछवाड़े के मैदान में खेलने चले जाना, जी भर के खेलना और घर वापस आने पर मां की डांट सुनकर बड़े-बड़े आंसू टपकाना, माफी मांगना और फिर मां के गले से लिपट जाना, शाम होते ही पलकों का बोझिल हो जाना और बिस्तर में लेटते ही गहरी नींद और ख्वाबों में खो जाना फिर सुबह होने पर मां का धीरे से थपकी देकर उठाना। हर दिन यही दिनचर्या, यही मौजमस्ती। थोड़ा वक्त गुजरा और बचपन की कोमलता कब कठोरता में तब्दील हो गई, कुछ पता ही नहीं चला। लड़कपन एक ठंडी हवा के झोंके की तरह मनभावन एहसास देकर चलता बना। जिम्मेदारियों के बोझ और उम्र ने हमें अपने पैरों पर खड़ा कर दिया। गुड्डे-गुड़िया फेंक कर हमने असल जिंदगी के खेल खेलने शुरू कर दिए। सैर-सपाटे और मौजमस्ती से नाता तोड़कर फर्ज और मजबूरियों का लबादा ओढ़ लिया। खैर, छोटे-बड़े और ऊंच-नीच के खयालों से दूर उस बचपन को भला कौन भूल सकता है जब हम अपने प्यारे पपी को भी अपने साथ अपने बिस्तर में ही सुलाने के लिए आतुर रहते थे। कहीं भी जाना हो, उसका साथ होना जरूरी था। ये अलग बात कि हम बड़े हो गए मगर इस बड़प्पन ने हमसे हमारी मासूमियत को छीन लिया। ऐसी मासूमियत कि किसी अजनबी आदमी को भी रोते हुए देख कर अपने आंसू नहीं रोक पाते थे और यूं ही पलकें गीली हो जाती थीं। हम बड़े तो हो गए मगर दिल की तमाम परतों के नीचे कहीं एक बच्चा जिंदा है जो बचपन के खयाल भर से ही बल्लियों उछल जाता है और उस पल को हमारा मन दीन-दुनिया की सारी बातें भुला कर कुलांचे भरने लगता है। हम जब भी किसी बच्चे को शरारत करते हुए देखते हैं तो मन करता कि हम भी उसकी अठखेलियों में श़रीक हो जाएं। एक बार फिर से निकल जाएं पड़ोस के बाग से अमरूद चुराने। मोहल्ले के बच्चों को इकट्ठा करें और शुरू हो जाए ‘अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो’ या फिर दौड़ चलें कोई कटी हुई पतंग लूटने और उसे लूट कर इतनी खुशी पाएं कि जैसे सारा जहान जीत लिया हो। तो आइए दोस्तो, हम दुनिया और समाज के ताने-बाने में फंसे होने का रोना छोड़कर डूब जाएं उस हसीन बचपन के दिलकश एहसास में, जिसको उम्र गुजरने के साथ-साथ हमने कहीं खो दिया था . . . . . . . . . . . . .

Saturday, March 21, 2009

कसाब, सम्राट अशोक के नक्शे कदम पर

सुनने में आया कि कभी खून की नदियाँ बहाने वाला पाकिस्तानी आतंकी अजमल आमिर कसाब इन दिनों राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जीवनी 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' पढ़ रहा है। वैसे यह अपनी तरह का पहला वाक़या नहीं है। चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने भी अपने जीवन का अधिकांश समय युद्धों में खर्च कर दिया मगर फिर रक्तपात को देखकर उनका ह्रदय परिवर्तन हो गया. इसके बाद उन्होंने फिर कभी तलवार नहीं उठाई. फर्क महज़ इतना है कि अशोक ने हथियार फेका था जबकि कसाब से हथियार छीना गया है. कुल मिला कर इस समय वह हथियारों से दूर है. फिलहाल तो वह सत्य के प्रयोग और उसके परिणामों का मनन करने में लगा है. यह मर्जी है या मजबूरी, इसका तो पता नहीं मगर कुछ भी हो कसाब के अन्दर शांति और अहिंसा के प्रति झुकाव जरूर आया है. अब देखना यह है कि यह झुकाव कब तक बना रहेगा और क्या इससे कसाब का ह्रदय परिवर्तन हो पायेगा अथवा नहीं ? अगर ह्रदय परिवर्तन हो गया तो इसमें कोई दोराय नहीं है कि कसाब एक नई परंपरा का कर्णधार बनेगा और कसाब को देखकर दूसरे आतंकी भाई भी इसमें अपनी रूचि दिखायेंगे.

Sunday, March 15, 2009

शरीफ, शराफत और .......

शराफत :सर की आफत
अब शराफत का ज़माना नहीं रहा साहब. शराफत पिछले कई सालों से आफत की चपेट में है. शरीफों को हरदम ही शराफत की कीमत चुकानी पडी है. पहले मुशर्रफ ने औंधे मुंह गिराया और अब ज़रदारी छाती में मूंग दल रहे हैं. इतना ही नहीं शरीफों के चुनाव लड़ने पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया है. भला बताइए साहब, चुनाव लड़ने वालों में शरीफ लोग ही नहीं रहेंगे तो भविष्य की नई सरकार से शराफत की उम्मीद कौन और क्यों करेगा? खैर मानो न मानो मगर शरीफ बन्धु ही शराफत के ब्रांड एम्बेसडर हैं. थोडा और गहराई से सोंचा जाए तो उन्हें शराफत का ब्रांड एंबेसडर कम ट्रेड मार्क कहना भी गलत नहीं होगा.
मगर उनकी मौजूदा हालत देखकर न्यूकमर्स इस फील्ड में आने से घबरा रहे हैं. उनका मानना है कि इस धंधे में अब पहले वाला प्राफिट नहीं रहा. वैश्विक मंदी का असर शरीफों पर भी पडा है. अब शेयर होल्डर्स शराफत में पूजी लगाने से कतरा रहे हैं. और तो और शरीफों की कम्पनी पर दिवालिया होने का संकट भी आ पड़ा है. हस्तरेखा विशेषज्ञओं की मानें तो इस समय शराफत के सितारे गर्दिश में हैं या यूं कहें कि शराफत के दिन अब लद गए हैं.
शरीफों ने शराफत का पुनरूत्थान करने और सारे शरीफों को एकजुट करने के लिए लॉन्ग मार्च का आयोजन भी किया मगर सरकार ने खिसियाकर उन्हें नजरबन्द कर दिया. यह पहली दफा नहीं है जब शरीफों को नजरबंद किया गया है. शरीफ, हमेशा से ही नॉनशरीफों के आँख की किरकिरी रहे हैं. पहले नजरबंदी होती है फिर देश निकाला, फिर नॉनशरीफ लोग शरीफों की प्रापर्टी और बैंक बलेंस मिनटों में चट कर जाते हैं. शरीफों को अक्सर नुकसान ही उठाना पड़ता है. अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब शरीफ ने ज़रदारी के साथ मिल कर चुनाव लड़ा था. भुट्टो की ह्त्या के बाद ज़रदारी ने भी शराफत का चोला पहन लिया था. मगर परमानेंट और टेम्परेरी शरीफ में कुछ न कुछ अंतर तो रहेगा ही. शरीफों की क्वांटिटी और क्वालिटी गिरने के का एक प्रमुख कारण यह है कि शरीफों के डेवेलपमेंट में लगे लोग गैरशरीफ और अनट्रेंड थे. अब अगर खेती में तकनीक का बेतरतीब इस्तेमाल होगा तो फ़ूडप्वायजनिंग तो लाजमी है. उधर कुछ जैवविज्ञानियों ने शरीफों की नजरबंदी को बेहद सराहनीय कदम बताया है. उनका कहना है की शरीफ एक विलुप्तप्राय प्रजाति है अतः उसे संरक्षित और सुरक्षित करने में कोई बुराई नहीं है.
आने वाले समय में शरीफों का क्या होगा यह तो भविष्य के गर्भ में है मगर कुछ समझदार लोगों ने शरीफों की वर्तमान हालत देखकर शराफत से कोई भी रिलेशन न रखने का फैसला किया है. बात भी सही है भाई, जब सेनापति का ये हश्र है तो बाकी शागिर्दों का क्या होगा? मैं तो कहता हूँ की शराफत छोड़ देने में ही भलाई है और इसीलिए इनदिनों एक गाना मेरा फेवरेट हो गया है - - - - - -

शरीफों की देख कर हालत, शराफत छोड़ दी हमने !!!!!!!

Saturday, March 14, 2009

ये दुनिया ऊट पटांगा

" मेरे होठों से निकल के हवा में एक आह उड़ी
फिर भी खुश हूँ मैं लोगो में ये अफवाह उड़ी है॥"
अफवाहें भले ही सच न होती हों मगर ये सच है कि ये अपने पीछे तमाम वांछित-अवांछित परिणाम ले कर आती हैं। अफवाहों का अपना समाज व स्तर होता है। कुछ अफवाहों के परिणाम हास्यास्पद तो कुछ के गंभीर व भयावह भी होते हैं। कभी-कभी अफवाहों के कारण बड़ी ही अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो जाती है। कुछ लोग तो अफवाह फैला कर बड़ी ही सुखद अनुभूति करते हैं वहीं कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो एक बार किसी अफवाह का शिकार हो जाने के बाद दूसरी किसी सच्चाई पर आसानी से विश्वास नहीं कर पाते। उन्हें हर एक बात में अफवाह का अंदेशा होता है। खैर कुछ अफवाहें हमें सचेत व प्रेरित भी करती हैं।
कुछ दिन पहले मैं एक विचित्र घटनाक्रम का गवाह बना। उस दिन मैं किसी काम से पड़ोस के एक नर्सरी स्कूल गया था. मैं प्रधानाचार्य के दफ्तर की तरफ जा ही रहा था कि अचानक इमरजेंसी वार्निंग बेल बजने लगी. पलक झपकते ही सभी अध्यापक और विद्यार्थी स्कूल के मैदान में इक्ट्ठे हो गए. आखिर बात क्या है? यह जानने के लिए मैं भी वहां पहुंचा और सबसे पीछे खड़ा हो गया. स्कूल के प्रधानाचार्य ने अपने संक्षिप्त भाषण में ये सूचना दी कि हमारे देश के एक पूर्व प्रधानमंत्री का निधन हो गया है. उनकी आत्मा कि शांति के लिए दो मिनट का मौन रखा गया और फिर स्कूल की छुट्टी कर दी गयी.इस शोक सभा में मैं भी शरीक हुआ. मौन के दौरान मेरे मन में एक क्लेश उत्पन्न हो रहा था कि मैं उन पूर्व प्रधानमंत्री से मिलने की अपनी हार्दिक इच्छा पूरी नहीं कर सका. शोक सभा समाप्त के बाद भारी मन से मैं घर वापस आया और पूर्व प्रधानमंत्री के निधन के बारे में पूरी तरह से जानने के लिए टीवी आन करके समाचार देखने लगा. टीवी देखते-देखते ही मैं उस समय अचानक भौचक्का रह गया जब मैंने उन पूर्व प्रधानमंत्री के निधन के विपरीत उनके स्वस्थ्य में सुधार का समाचार देखा. सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ. मगर थोडी देर में यह साफ़ हो गया कि वह पूर्व प्रधानमंत्री अभी जीवित हैं और उनके स्वस्थ्य में तेजी से सुधार भी हो रहा है. मुझे थोड़ी सी हंसी आई. मुझे हंसी का कारण स्पष्टतः पता नहीं चला. शायद यह हंसी उस लचर सूचना तंत्र पर रही होगी जिसके कारण एक अजीब सी घटना घटी या फिर यह हंसी इस ख़ुशी के कारण थी कि उन पूर्व प्रधानमंत्री से मिलने कि हार्दिक इच्छा को पूरा करने मौका अभी भी मेरे पास मौजूद था.
कुछ भी हो मगर इस अफवाह ने मुझे ठंडे बस्ते में जा चुकी अपनी ख्वाहिश को जल्द से जल्द हकीकत का रूप देने के लिए प्रेरित जरूर किया. और अब मैं जल्दी ही उनसे मिल लेने के लिए आतुर हूँ.