Wednesday, December 2, 2009

वो बचपन के दिन...

बचपन में एक सवाल बहुत पूछा जाता था कि बड़े होकर क्या बनना चाहते हो? जवाब होते थे- डॉक्टर, इंजीनियर, पायलट......। लेकिन यही सवाल अगर अब पूछा जाए तो जवाब होगा कि माफ करें, हम बड़े होना ही नहीं चाहते थे। बचपन में बड़े होने की ललक, बड़े होने पर मिलने वाले झंझावातों से एकदम अनजान थी। शायद इसी कारण बचपन को जी भर के जी नहीं पाए और अब अफसोस के आंसू बहा रहे हैं। हमारा बचपन हमसे हाथ छुड़ाकर दूर चला गया और हमें न चाहते हुए भी उसे अलविदा कहना पड़ा। वजह कुछ भी हो मगर कभी-कभी यह महसूस होता है कि हमने खुद के साथ बहुत ज्यादती की। बचपन की चंद सुहानी यादों पर सब कुछ कुर्बान कर देने को जी करता है। मगर जिंदगी की उधेड़बुनें हमें बचपन की यादों में खो जाने के लिए कभी अकेला नहीं छोड़तीं। वर्तमान के झंझट और भविष्य की महत्वाकांक्षाओं ने कभी अतीत के बारे में ठीक से सोचने का मौका ही नहीं दिया। लेकिन चलिए, फिर भी कोशिश करते हैं। आइए कोशिश करते हैं, फिर उसी आयु वर्ग में शामिल होने की, जब हम सिर्फ अपनी सुनते थे। न किसी के दबाव का असर था और न कोई मजबूरी। वे दिन, जब सुबह उठते ही खेलकूद की योजना बनाते थे और स्कूल से आते ही योजनाओं के क्रियान्वयन में जुट जाते थे। मां के लाख मना करने पर भी पिछवाड़े के मैदान में खेलने चले जाना, जी भर के खेलना और घर वापस आने पर मां की डांट सुनकर बड़े-बड़े आंसू टपकाना, माफी मांगना और फिर मां के गले से लिपट जाना, शाम होते ही पलकों का बोझिल हो जाना और बिस्तर में लेटते ही गहरी नींद और ख्वाबों में खो जाना फिर सुबह होने पर मां का धीरे से थपकी देकर उठाना। हर दिन यही दिनचर्या, यही मौजमस्ती। थोड़ा वक्त गुजरा और बचपन की कोमलता कब कठोरता में तब्दील हो गई, कुछ पता ही नहीं चला। लड़कपन एक ठंडी हवा के झोंके की तरह मनभावन एहसास देकर चलता बना। जिम्मेदारियों के बोझ और उम्र ने हमें अपने पैरों पर खड़ा कर दिया। गुड्डे-गुड़िया फेंक कर हमने असल जिंदगी के खेल खेलने शुरू कर दिए। सैर-सपाटे और मौजमस्ती से नाता तोड़कर फर्ज और मजबूरियों का लबादा ओढ़ लिया। खैर, छोटे-बड़े और ऊंच-नीच के खयालों से दूर उस बचपन को भला कौन भूल सकता है जब हम अपने प्यारे पपी को भी अपने साथ अपने बिस्तर में ही सुलाने के लिए आतुर रहते थे। कहीं भी जाना हो, उसका साथ होना जरूरी था। ये अलग बात कि हम बड़े हो गए मगर इस बड़प्पन ने हमसे हमारी मासूमियत को छीन लिया। ऐसी मासूमियत कि किसी अजनबी आदमी को भी रोते हुए देख कर अपने आंसू नहीं रोक पाते थे और यूं ही पलकें गीली हो जाती थीं। हम बड़े तो हो गए मगर दिल की तमाम परतों के नीचे कहीं एक बच्चा जिंदा है जो बचपन के खयाल भर से ही बल्लियों उछल जाता है और उस पल को हमारा मन दीन-दुनिया की सारी बातें भुला कर कुलांचे भरने लगता है। हम जब भी किसी बच्चे को शरारत करते हुए देखते हैं तो मन करता कि हम भी उसकी अठखेलियों में श़रीक हो जाएं। एक बार फिर से निकल जाएं पड़ोस के बाग से अमरूद चुराने। मोहल्ले के बच्चों को इकट्ठा करें और शुरू हो जाए ‘अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो’ या फिर दौड़ चलें कोई कटी हुई पतंग लूटने और उसे लूट कर इतनी खुशी पाएं कि जैसे सारा जहान जीत लिया हो। तो आइए दोस्तो, हम दुनिया और समाज के ताने-बाने में फंसे होने का रोना छोड़कर डूब जाएं उस हसीन बचपन के दिलकश एहसास में, जिसको उम्र गुजरने के साथ-साथ हमने कहीं खो दिया था . . . . . . . . . . . . .