Tuesday, December 22, 2009

Jansatta Express : पत्रकारिता बनाम चाटुकारिता

नोटः प्रस्तुत आलेख भारत के प्रतिष्ठित न्जूज पोर्टल www.jansattaexpress.net पर भी उपलब्ध है।

चाटुकारिता, जिसे ठेठ भाषा में तेल लगाना भी कहते हैं, एक ऐसी अति वांक्षित योग्यता है जो पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रख रहे लोगों के लिए अकथित रूप से बेहद आवश्यक है। जिसे जितनी अच्छी तरह से तेल लगाना आता है, अधिकृत पत्रकारिता में उसकी तरक्की के विकल्प उतने ही ज्यादा होते हैं। इस कला के बिना कम से कम पत्रकारिता के क्षेत्र में टिक पाना तो लगभग असंभव होता है। यह महज एक अनुभव नहीं है। इस तथ्य को पूरे पत्रकारिता जगत में मौन स्वीकृति प्राप्त है। हर वो श़ख्स जो अपने शुरुआती दिनों तेल लगाना पसंद नहीं करता, वह सीनियर हो जाने पर अपने अधीनस्थों से तेल लगवाने का शौक जरूर रखता है।
पत्रकारिता के बाहरी रुतबे व कद को देखकर और उस पर आकर्षित होकर तमाम युवा पत्रकारिता को अपने कैरियर के रूप में चुनते हैं। देशभक्ति-भाईचारे और सहिष्णुता के भावों से लबरेज होकर वे पत्रकार बनने का सपना संजोते हैं मगर बाद में इसके (पत्रकारिता के) वर्तमान स्वरूप की सच्चाई से वाकिफ होकर उन्हें अपने आस-पास के वातावरण से घिन आने लगती है। काफी दिन तक वह युवा संघर्ष करता है और सिस्टम में बदलाव लाने की हरसंभव कोशिश करता है मगर हालात यह होते हैं कि सिस्टम में नीचे से ऊपर तक मौजूद तेल के शौकीन लोग हर कीमत पर इस सुख का आनंद लेना चाहते हैं। ऐसे में उक्त युवा इस वातावरण को समझने का प्रयास करते-करते न चाहते हुए भी उसमें ढल जाता है। सिस्टम बदलने का उसका सपना, सिर्फ सपना ही रह जाता है और उसमें वक्त गुजरने के साथ धूल की पर्त जमने लगती है। फलस्वरूप परिवर्तन का उसका सपना खामोशी से दम तोड़ देता है।
कुछ युवा तो अपने कैरियर के शुरुआत में कुछ दिनों तक यह समझकर भी अपने सीनियर या बॉस द्वारा आदेशित हर काम को खुशी से करते रहते हैं कि उन्हें इससे कुछ सीखने को मिलेगा। मगर इसके विपरीत सीनियर्स सिखाने के नाम पर उस जूनियर को अपना चपरासी समझने लगते हैं। कुछ समय बाद जब वह जूनियर उनके हर एक आदेश को मानने से मना करने लगता है तो फिर मन-मोटाव और टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कई बार तो संस्थान छोड़ने की भी नौबत आ जाती है।
एक बात और गौर करने वाली है कि जो लोग अपने प्रारंभिक दिनों में यह सहते हैं, वे सीनियर हो जाने पर दूसरों से (जूनियरों से) इसकी उम्मीद करते हैं। उनमें मन ही मन एक चिढ़ भरी रहती है जो धीरे-धीरे अवसाद का रूप अख्तियार कर लेती है।
पत्रकारिता जगत में अमूमन चाटुकारों को ही वेतनवृद्धि भी नसीब होती है, अन्यथा इस क्षेत्र में चाहे जितने दिन गुजर जाएं, वेतन उतना का उतना ही रह जाता है। बॉस के लुक की तारीफ, उसके लहजे की सराहना, उसके काम करने के ढंग की बड़ाई, हर बात में बॉस की जीहुजूरी और यह कहना कि मुझे तो आपके साथ काम करने में सबसे ज्यादा अच्छा लगता है, आदि कथन अखबारों और टीवी चैनलों के आफिसों में आम बातें हो गईं हैं। आधुनिक पत्रकारिता के गुणात्मक और चारित्रिक क्षरण की भी यही वजह है कि हम भविष्य में हो सकने वाले छोटे से फायदे के लिए हर वह बात स्वीकार कर लेते हैं जिसे हम एकदम पसंद नहीं करते।
कुछ युवा (नए पत्रकार) ऐसे भी होते हैं जो अपनी योग्यता को ही सर्वोपरि रखते हैं और किसी भी कीमत पर चाटुकारिता को बढ़वा नहीं देते। पहले तो तमाम उपाय करके उनके तरीके को बदलने की या उन्हें सिस्टम से बाहर कर देने की कोशिश की जाती है मगर फिर भी न झुकने पर आखिरकार उसके तेवरों को स्वीकार कर लिया जाता है और फिर उस युवा पत्रकार का सिक्का जम जाता है। तदुपरांत उस संस्थान का गुणात्मक सुधार होने लगता है।
पत्रकारिता को चाटुकारिता के चंगुल से अगर कोई छुड़ा सकता है तो वह है आज की युवा पीढ़ी। हम युवाओं को चाहिए कि हम बड़े-बुजुर्गों की काबलियत और उम्र का लिहाज तो करें मगर यदि कोई हमें अपना चाटुकार या वैचारिक चपरासी बनाना चाहे तो हम न सिर्फ उसका विरोध करें, बल्कि ऐसी तुच्छ मानसिकता के लोगों को मुंहतोड़ जवाब भी दें।
आइए! हम उठ खड़े हों उन लोगों के खिलाफ जो पत्रकारिता को अपने पैर की जूती समझते हैं। हमें सबक सिखाना होगा उन मुट्ठी भर लोगों को जो पत्रकारिता को जेब में भर कर टहलने का दावा करते हैं। क्योंकि यही वर्तमान समाज की जरूरत भी है मजबूरी भी।

Wednesday, December 2, 2009

वो बचपन के दिन...

बचपन में एक सवाल बहुत पूछा जाता था कि बड़े होकर क्या बनना चाहते हो? जवाब होते थे- डॉक्टर, इंजीनियर, पायलट......। लेकिन यही सवाल अगर अब पूछा जाए तो जवाब होगा कि माफ करें, हम बड़े होना ही नहीं चाहते थे। बचपन में बड़े होने की ललक, बड़े होने पर मिलने वाले झंझावातों से एकदम अनजान थी। शायद इसी कारण बचपन को जी भर के जी नहीं पाए और अब अफसोस के आंसू बहा रहे हैं। हमारा बचपन हमसे हाथ छुड़ाकर दूर चला गया और हमें न चाहते हुए भी उसे अलविदा कहना पड़ा। वजह कुछ भी हो मगर कभी-कभी यह महसूस होता है कि हमने खुद के साथ बहुत ज्यादती की। बचपन की चंद सुहानी यादों पर सब कुछ कुर्बान कर देने को जी करता है। मगर जिंदगी की उधेड़बुनें हमें बचपन की यादों में खो जाने के लिए कभी अकेला नहीं छोड़तीं। वर्तमान के झंझट और भविष्य की महत्वाकांक्षाओं ने कभी अतीत के बारे में ठीक से सोचने का मौका ही नहीं दिया। लेकिन चलिए, फिर भी कोशिश करते हैं। आइए कोशिश करते हैं, फिर उसी आयु वर्ग में शामिल होने की, जब हम सिर्फ अपनी सुनते थे। न किसी के दबाव का असर था और न कोई मजबूरी। वे दिन, जब सुबह उठते ही खेलकूद की योजना बनाते थे और स्कूल से आते ही योजनाओं के क्रियान्वयन में जुट जाते थे। मां के लाख मना करने पर भी पिछवाड़े के मैदान में खेलने चले जाना, जी भर के खेलना और घर वापस आने पर मां की डांट सुनकर बड़े-बड़े आंसू टपकाना, माफी मांगना और फिर मां के गले से लिपट जाना, शाम होते ही पलकों का बोझिल हो जाना और बिस्तर में लेटते ही गहरी नींद और ख्वाबों में खो जाना फिर सुबह होने पर मां का धीरे से थपकी देकर उठाना। हर दिन यही दिनचर्या, यही मौजमस्ती। थोड़ा वक्त गुजरा और बचपन की कोमलता कब कठोरता में तब्दील हो गई, कुछ पता ही नहीं चला। लड़कपन एक ठंडी हवा के झोंके की तरह मनभावन एहसास देकर चलता बना। जिम्मेदारियों के बोझ और उम्र ने हमें अपने पैरों पर खड़ा कर दिया। गुड्डे-गुड़िया फेंक कर हमने असल जिंदगी के खेल खेलने शुरू कर दिए। सैर-सपाटे और मौजमस्ती से नाता तोड़कर फर्ज और मजबूरियों का लबादा ओढ़ लिया। खैर, छोटे-बड़े और ऊंच-नीच के खयालों से दूर उस बचपन को भला कौन भूल सकता है जब हम अपने प्यारे पपी को भी अपने साथ अपने बिस्तर में ही सुलाने के लिए आतुर रहते थे। कहीं भी जाना हो, उसका साथ होना जरूरी था। ये अलग बात कि हम बड़े हो गए मगर इस बड़प्पन ने हमसे हमारी मासूमियत को छीन लिया। ऐसी मासूमियत कि किसी अजनबी आदमी को भी रोते हुए देख कर अपने आंसू नहीं रोक पाते थे और यूं ही पलकें गीली हो जाती थीं। हम बड़े तो हो गए मगर दिल की तमाम परतों के नीचे कहीं एक बच्चा जिंदा है जो बचपन के खयाल भर से ही बल्लियों उछल जाता है और उस पल को हमारा मन दीन-दुनिया की सारी बातें भुला कर कुलांचे भरने लगता है। हम जब भी किसी बच्चे को शरारत करते हुए देखते हैं तो मन करता कि हम भी उसकी अठखेलियों में श़रीक हो जाएं। एक बार फिर से निकल जाएं पड़ोस के बाग से अमरूद चुराने। मोहल्ले के बच्चों को इकट्ठा करें और शुरू हो जाए ‘अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो’ या फिर दौड़ चलें कोई कटी हुई पतंग लूटने और उसे लूट कर इतनी खुशी पाएं कि जैसे सारा जहान जीत लिया हो। तो आइए दोस्तो, हम दुनिया और समाज के ताने-बाने में फंसे होने का रोना छोड़कर डूब जाएं उस हसीन बचपन के दिलकश एहसास में, जिसको उम्र गुजरने के साथ-साथ हमने कहीं खो दिया था . . . . . . . . . . . . .

Saturday, March 21, 2009

कसाब, सम्राट अशोक के नक्शे कदम पर

सुनने में आया कि कभी खून की नदियाँ बहाने वाला पाकिस्तानी आतंकी अजमल आमिर कसाब इन दिनों राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जीवनी 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' पढ़ रहा है। वैसे यह अपनी तरह का पहला वाक़या नहीं है। चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने भी अपने जीवन का अधिकांश समय युद्धों में खर्च कर दिया मगर फिर रक्तपात को देखकर उनका ह्रदय परिवर्तन हो गया. इसके बाद उन्होंने फिर कभी तलवार नहीं उठाई. फर्क महज़ इतना है कि अशोक ने हथियार फेका था जबकि कसाब से हथियार छीना गया है. कुल मिला कर इस समय वह हथियारों से दूर है. फिलहाल तो वह सत्य के प्रयोग और उसके परिणामों का मनन करने में लगा है. यह मर्जी है या मजबूरी, इसका तो पता नहीं मगर कुछ भी हो कसाब के अन्दर शांति और अहिंसा के प्रति झुकाव जरूर आया है. अब देखना यह है कि यह झुकाव कब तक बना रहेगा और क्या इससे कसाब का ह्रदय परिवर्तन हो पायेगा अथवा नहीं ? अगर ह्रदय परिवर्तन हो गया तो इसमें कोई दोराय नहीं है कि कसाब एक नई परंपरा का कर्णधार बनेगा और कसाब को देखकर दूसरे आतंकी भाई भी इसमें अपनी रूचि दिखायेंगे.

Sunday, March 15, 2009

शरीफ, शराफत और .......

शराफत :सर की आफत
अब शराफत का ज़माना नहीं रहा साहब. शराफत पिछले कई सालों से आफत की चपेट में है. शरीफों को हरदम ही शराफत की कीमत चुकानी पडी है. पहले मुशर्रफ ने औंधे मुंह गिराया और अब ज़रदारी छाती में मूंग दल रहे हैं. इतना ही नहीं शरीफों के चुनाव लड़ने पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया है. भला बताइए साहब, चुनाव लड़ने वालों में शरीफ लोग ही नहीं रहेंगे तो भविष्य की नई सरकार से शराफत की उम्मीद कौन और क्यों करेगा? खैर मानो न मानो मगर शरीफ बन्धु ही शराफत के ब्रांड एम्बेसडर हैं. थोडा और गहराई से सोंचा जाए तो उन्हें शराफत का ब्रांड एंबेसडर कम ट्रेड मार्क कहना भी गलत नहीं होगा.
मगर उनकी मौजूदा हालत देखकर न्यूकमर्स इस फील्ड में आने से घबरा रहे हैं. उनका मानना है कि इस धंधे में अब पहले वाला प्राफिट नहीं रहा. वैश्विक मंदी का असर शरीफों पर भी पडा है. अब शेयर होल्डर्स शराफत में पूजी लगाने से कतरा रहे हैं. और तो और शरीफों की कम्पनी पर दिवालिया होने का संकट भी आ पड़ा है. हस्तरेखा विशेषज्ञओं की मानें तो इस समय शराफत के सितारे गर्दिश में हैं या यूं कहें कि शराफत के दिन अब लद गए हैं.
शरीफों ने शराफत का पुनरूत्थान करने और सारे शरीफों को एकजुट करने के लिए लॉन्ग मार्च का आयोजन भी किया मगर सरकार ने खिसियाकर उन्हें नजरबन्द कर दिया. यह पहली दफा नहीं है जब शरीफों को नजरबंद किया गया है. शरीफ, हमेशा से ही नॉनशरीफों के आँख की किरकिरी रहे हैं. पहले नजरबंदी होती है फिर देश निकाला, फिर नॉनशरीफ लोग शरीफों की प्रापर्टी और बैंक बलेंस मिनटों में चट कर जाते हैं. शरीफों को अक्सर नुकसान ही उठाना पड़ता है. अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब शरीफ ने ज़रदारी के साथ मिल कर चुनाव लड़ा था. भुट्टो की ह्त्या के बाद ज़रदारी ने भी शराफत का चोला पहन लिया था. मगर परमानेंट और टेम्परेरी शरीफ में कुछ न कुछ अंतर तो रहेगा ही. शरीफों की क्वांटिटी और क्वालिटी गिरने के का एक प्रमुख कारण यह है कि शरीफों के डेवेलपमेंट में लगे लोग गैरशरीफ और अनट्रेंड थे. अब अगर खेती में तकनीक का बेतरतीब इस्तेमाल होगा तो फ़ूडप्वायजनिंग तो लाजमी है. उधर कुछ जैवविज्ञानियों ने शरीफों की नजरबंदी को बेहद सराहनीय कदम बताया है. उनका कहना है की शरीफ एक विलुप्तप्राय प्रजाति है अतः उसे संरक्षित और सुरक्षित करने में कोई बुराई नहीं है.
आने वाले समय में शरीफों का क्या होगा यह तो भविष्य के गर्भ में है मगर कुछ समझदार लोगों ने शरीफों की वर्तमान हालत देखकर शराफत से कोई भी रिलेशन न रखने का फैसला किया है. बात भी सही है भाई, जब सेनापति का ये हश्र है तो बाकी शागिर्दों का क्या होगा? मैं तो कहता हूँ की शराफत छोड़ देने में ही भलाई है और इसीलिए इनदिनों एक गाना मेरा फेवरेट हो गया है - - - - - -

शरीफों की देख कर हालत, शराफत छोड़ दी हमने !!!!!!!

Saturday, March 14, 2009

ये दुनिया ऊट पटांगा

" मेरे होठों से निकल के हवा में एक आह उड़ी
फिर भी खुश हूँ मैं लोगो में ये अफवाह उड़ी है॥"
अफवाहें भले ही सच न होती हों मगर ये सच है कि ये अपने पीछे तमाम वांछित-अवांछित परिणाम ले कर आती हैं। अफवाहों का अपना समाज व स्तर होता है। कुछ अफवाहों के परिणाम हास्यास्पद तो कुछ के गंभीर व भयावह भी होते हैं। कभी-कभी अफवाहों के कारण बड़ी ही अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो जाती है। कुछ लोग तो अफवाह फैला कर बड़ी ही सुखद अनुभूति करते हैं वहीं कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो एक बार किसी अफवाह का शिकार हो जाने के बाद दूसरी किसी सच्चाई पर आसानी से विश्वास नहीं कर पाते। उन्हें हर एक बात में अफवाह का अंदेशा होता है। खैर कुछ अफवाहें हमें सचेत व प्रेरित भी करती हैं।
कुछ दिन पहले मैं एक विचित्र घटनाक्रम का गवाह बना। उस दिन मैं किसी काम से पड़ोस के एक नर्सरी स्कूल गया था. मैं प्रधानाचार्य के दफ्तर की तरफ जा ही रहा था कि अचानक इमरजेंसी वार्निंग बेल बजने लगी. पलक झपकते ही सभी अध्यापक और विद्यार्थी स्कूल के मैदान में इक्ट्ठे हो गए. आखिर बात क्या है? यह जानने के लिए मैं भी वहां पहुंचा और सबसे पीछे खड़ा हो गया. स्कूल के प्रधानाचार्य ने अपने संक्षिप्त भाषण में ये सूचना दी कि हमारे देश के एक पूर्व प्रधानमंत्री का निधन हो गया है. उनकी आत्मा कि शांति के लिए दो मिनट का मौन रखा गया और फिर स्कूल की छुट्टी कर दी गयी.इस शोक सभा में मैं भी शरीक हुआ. मौन के दौरान मेरे मन में एक क्लेश उत्पन्न हो रहा था कि मैं उन पूर्व प्रधानमंत्री से मिलने की अपनी हार्दिक इच्छा पूरी नहीं कर सका. शोक सभा समाप्त के बाद भारी मन से मैं घर वापस आया और पूर्व प्रधानमंत्री के निधन के बारे में पूरी तरह से जानने के लिए टीवी आन करके समाचार देखने लगा. टीवी देखते-देखते ही मैं उस समय अचानक भौचक्का रह गया जब मैंने उन पूर्व प्रधानमंत्री के निधन के विपरीत उनके स्वस्थ्य में सुधार का समाचार देखा. सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ. मगर थोडी देर में यह साफ़ हो गया कि वह पूर्व प्रधानमंत्री अभी जीवित हैं और उनके स्वस्थ्य में तेजी से सुधार भी हो रहा है. मुझे थोड़ी सी हंसी आई. मुझे हंसी का कारण स्पष्टतः पता नहीं चला. शायद यह हंसी उस लचर सूचना तंत्र पर रही होगी जिसके कारण एक अजीब सी घटना घटी या फिर यह हंसी इस ख़ुशी के कारण थी कि उन पूर्व प्रधानमंत्री से मिलने कि हार्दिक इच्छा को पूरा करने मौका अभी भी मेरे पास मौजूद था.
कुछ भी हो मगर इस अफवाह ने मुझे ठंडे बस्ते में जा चुकी अपनी ख्वाहिश को जल्द से जल्द हकीकत का रूप देने के लिए प्रेरित जरूर किया. और अब मैं जल्दी ही उनसे मिल लेने के लिए आतुर हूँ.

बोलो, कैसा एम पी चाहिए ?

आज सुबह जब मैंने अपना मोबाइल फोन उठाया तो चौंक पड़ा। उसमें एक मैसेज था - "बोलो, कैसा एम. पी. चाहिए? अपने मोबाइल फोन के मैसेज बॉक्स में जाकर टाइप करें MP और अपने एम पी की वांछित खूबियों व अपनी लोकसभा के नाम के साथ भेज दें 9211420 पर. सब्सक्रिप्शन के सिर्फ 24 घंटों के अन्दर हम आपको देंगे आपके मन पसंद उम्मीदवार का नाम, शर्तें लागू." मैसेज पढ़ कर मैं गदगद हो गया और अपने एम पी की वांछित खूबियों की लिस्ट बनाने में जुट गया. मसलन - ज्यादा लम्बी क्राइम लिस्ट न हो, घोटालों में इंटरेस्ट कम से कम रखता हो, अंगूठा टेक न हो वगैरह- वगैरह. मैं न सिर्फ जल्द से जल्द इस रिवोल्युशनरी स्कीम को सबस्क्राइब करना चाहता था बल्कि इसका हिस्सेदार बन के ज्यादा से ज्यादा फायदा भी उठाना चाहता था. कहने का आशय ये कि मैं इस स्कीम के जरिये सर्वाधिक सुयोग्य एम पी चुनना चाहता था. यह एक अदद स्कीम थी जो मुझे मेरी पसंद का एम पी चुनने में मदद कर रही थी. वर्ना आज के दौर में मनपसंद चीज मिलती ही कहाँ है? यह स्कीम लाजवाब तो थी ही साथ ही देशहित में भी थी क्योंकि यह उपभोगताओं को उम्मीदवार सुझाने के दौरान पार्टियों की सीमाओं में नहीं बंधती थी. यह स्कीम सिर्फ वांछित खूबीधारी उम्मीदवार का नाम ही सुझाती थी, उसकी पार्टी और उसके एजेंडे से इसका कोई सारोकार नहीं था. मोबाइल कम्पनियों द्वारा चलाई जाने वाली तमाम स्कीमों जैसे -' जानिए अपना आज का भविष्यफल, जीतें फोर्ड फिएस्टा सिर्फ एक आसान सवाल का जवाब दे कर' आदि में सर खपाने और खाली हाथ रहने बाद मुझे इस स्कीम की वास्तविकता में शक होना लाजमी था. मगर यह अपनी तरह की सबसे अलग और इकलौती स्कीम थी अतः मैनें काफी सोंच-विचार करके अपने एम पी की वांछित खूबियों वाला मैसेज भेज ही दिया. इस मैसेज को भेजने के बाद मेरे मोबाइल के टाक टाइम का एक बड़ा हिस्सा उड़ गया जो कि ऐसी स्कीमों के प्रति मेरे शक और गुस्से को और ज्यादा करने के लिए पर्याप्त था. मगर फिर भी मैं सकारात्मक सोंच के साथ उम्मीदवार के नाम का इन्तजार करने लगा. सब्सक्रिप्शन के कुछ घंटे बाद मोबाइल में एक मैसेज आया- "उम्मीदवार की जो वाछित खूबियाँ आपने भेजी हैं वो किसी भी उपलब्ध उम्मीदवार से मैच नहीं करती. अतः खूबियों को परिवर्तित करके पुनः भेजें अथवा उम्मीदवारों के अगले स्टॉक तक इन्तजार करें, धन्यवाद ! " मैसेज पढ़ कर मैं गहन चिंतन और उधेड़बुन में डूब गया. मैं सोचने लगा कि क्या कोई ऐसा उम्मीदवार सच में नहीं है? उद्देश्य की पूर्ती न होने के कारण मैं इस स्कीम के प्रति अविश्वास पाल सकता था मगर सच्चाई से अवगत हो जाने बाद मेरे मन में इस स्कीम के लिए आस्था मजबूत हो गई. मैं मन ही मन दुआ करने लगा कि मेरी वांछित खूबियों वाला उम्मीदवार जल्द से जल्द उपलब्ध हो जाए और उसके नाम का मैसेज मेरे मोबाइल पर आ जाए.

Thursday, March 12, 2009

मोबाइल मेनिया

इन दिनों जिस ख़बर का बाज़ार बहुत गर्म है वह है - ' सेहत के लिए खतरनाक है मोबाइल ' । डाक्टरों का कहना है कि मोबाइल पर घंटों बात करने से सिरदर्द, अनिद्रा, घबराहट और तनाव जैसी गंभीर बीमारियाँ हो सकती हैं। इसलिए लोगों को मोबाइल से यथासम्भव परहेज करना चाहिए। अब साहब, मुसीबत तो दोनों तरफ़ ही है। माना कि मोबाइल पर बात करने से ये घातक बीमारियाँ हो सकती हैं मगर बात न करने से भी तो यही बीमारियां ही होंगी। जिस स्वजन से हम रोज़ घंटों बतियाते रहते हैं उससे अचानक बातचीत बंद हो जाने पर भी तो घबराहट, सिरदर्द, अनिद्रा और तनाव की ही शिकायत होगी। अब ऐसी हालत में क्या किया जाए जब आगे कुँआ हो और पीछे खाई। डेली रूटीन में शामिल हो चुका कोई काम अचानक तो ख़त्म होने से रहा। अतः डाक्टरों से मेरी अपील है कि वे कोई ऐसा रास्ता सुझाएँ जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।