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चाटुकारिता, जिसे ठेठ भाषा में तेल लगाना भी कहते हैं, एक ऐसी अति वांक्षित योग्यता है जो पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रख रहे लोगों के लिए अकथित रूप से बेहद आवश्यक है। जिसे जितनी अच्छी तरह से तेल लगाना आता है, अधिकृत पत्रकारिता में उसकी तरक्की के विकल्प उतने ही ज्यादा होते हैं। इस कला के बिना कम से कम पत्रकारिता के क्षेत्र में टिक पाना तो लगभग असंभव होता है। यह महज एक अनुभव नहीं है। इस तथ्य को पूरे पत्रकारिता जगत में मौन स्वीकृति प्राप्त है। हर वो श़ख्स जो अपने शुरुआती दिनों तेल लगाना पसंद नहीं करता, वह सीनियर हो जाने पर अपने अधीनस्थों से तेल लगवाने का शौक जरूर रखता है।
पत्रकारिता के बाहरी रुतबे व कद को देखकर और उस पर आकर्षित होकर तमाम युवा पत्रकारिता को अपने कैरियर के रूप में चुनते हैं। देशभक्ति-भाईचारे और सहिष्णुता के भावों से लबरेज होकर वे पत्रकार बनने का सपना संजोते हैं मगर बाद में इसके (पत्रकारिता के) वर्तमान स्वरूप की सच्चाई से वाकिफ होकर उन्हें अपने आस-पास के वातावरण से घिन आने लगती है। काफी दिन तक वह युवा संघर्ष करता है और सिस्टम में बदलाव लाने की हरसंभव कोशिश करता है मगर हालात यह होते हैं कि सिस्टम में नीचे से ऊपर तक मौजूद तेल के शौकीन लोग हर कीमत पर इस सुख का आनंद लेना चाहते हैं। ऐसे में उक्त युवा इस वातावरण को समझने का प्रयास करते-करते न चाहते हुए भी उसमें ढल जाता है। सिस्टम बदलने का उसका सपना, सिर्फ सपना ही रह जाता है और उसमें वक्त गुजरने के साथ धूल की पर्त जमने लगती है। फलस्वरूप परिवर्तन का उसका सपना खामोशी से दम तोड़ देता है।
कुछ युवा तो अपने कैरियर के शुरुआत में कुछ दिनों तक यह समझकर भी अपने सीनियर या बॉस द्वारा आदेशित हर काम को खुशी से करते रहते हैं कि उन्हें इससे कुछ सीखने को मिलेगा। मगर इसके विपरीत सीनियर्स सिखाने के नाम पर उस जूनियर को अपना चपरासी समझने लगते हैं। कुछ समय बाद जब वह जूनियर उनके हर एक आदेश को मानने से मना करने लगता है तो फिर मन-मोटाव और टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कई बार तो संस्थान छोड़ने की भी नौबत आ जाती है।
एक बात और गौर करने वाली है कि जो लोग अपने प्रारंभिक दिनों में यह सहते हैं, वे सीनियर हो जाने पर दूसरों से (जूनियरों से) इसकी उम्मीद करते हैं। उनमें मन ही मन एक चिढ़ भरी रहती है जो धीरे-धीरे अवसाद का रूप अख्तियार कर लेती है।
पत्रकारिता जगत में अमूमन चाटुकारों को ही वेतनवृद्धि भी नसीब होती है, अन्यथा इस क्षेत्र में चाहे जितने दिन गुजर जाएं, वेतन उतना का उतना ही रह जाता है। बॉस के लुक की तारीफ, उसके लहजे की सराहना, उसके काम करने के ढंग की बड़ाई, हर बात में बॉस की जीहुजूरी और यह कहना कि मुझे तो आपके साथ काम करने में सबसे ज्यादा अच्छा लगता है, आदि कथन अखबारों और टीवी चैनलों के आफिसों में आम बातें हो गईं हैं। आधुनिक पत्रकारिता के गुणात्मक और चारित्रिक क्षरण की भी यही वजह है कि हम भविष्य में हो सकने वाले छोटे से फायदे के लिए हर वह बात स्वीकार कर लेते हैं जिसे हम एकदम पसंद नहीं करते।
कुछ युवा (नए पत्रकार) ऐसे भी होते हैं जो अपनी योग्यता को ही सर्वोपरि रखते हैं और किसी भी कीमत पर चाटुकारिता को बढ़वा नहीं देते। पहले तो तमाम उपाय करके उनके तरीके को बदलने की या उन्हें सिस्टम से बाहर कर देने की कोशिश की जाती है मगर फिर भी न झुकने पर आखिरकार उसके तेवरों को स्वीकार कर लिया जाता है और फिर उस युवा पत्रकार का सिक्का जम जाता है। तदुपरांत उस संस्थान का गुणात्मक सुधार होने लगता है।
पत्रकारिता को चाटुकारिता के चंगुल से अगर कोई छुड़ा सकता है तो वह है आज की युवा पीढ़ी। हम युवाओं को चाहिए कि हम बड़े-बुजुर्गों की काबलियत और उम्र का लिहाज तो करें मगर यदि कोई हमें अपना चाटुकार या वैचारिक चपरासी बनाना चाहे तो हम न सिर्फ उसका विरोध करें, बल्कि ऐसी तुच्छ मानसिकता के लोगों को मुंहतोड़ जवाब भी दें।
आइए! हम उठ खड़े हों उन लोगों के खिलाफ जो पत्रकारिता को अपने पैर की जूती समझते हैं। हमें सबक सिखाना होगा उन मुट्ठी भर लोगों को जो पत्रकारिता को जेब में भर कर टहलने का दावा करते हैं। क्योंकि यही वर्तमान समाज की जरूरत भी है मजबूरी भी।
Mai patrkaar to nahi lekin ' tel lagana' har kshetr me hota hai...koyi wyavsaay isse achhoota nahi!
ReplyDeletemujhe aapka ye artical bahut pasand aaya.............
ReplyDeletebahut kuch jaana..
aap dekyega mai duniya ko badal kar dikhangi......
बाग़ी जी । आपके पुराने लेखों को पढ़ते हुए भी नयी ऊर्जा और नयी ताज़गी का एहसास हो रहा है । गर्व है मुझे आप पर । यूँ ही मिसाल कायम किये रहिये । लव यू बाबू
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