Tuesday, December 22, 2009

Jansatta Express : पत्रकारिता बनाम चाटुकारिता

नोटः प्रस्तुत आलेख भारत के प्रतिष्ठित न्जूज पोर्टल www.jansattaexpress.net पर भी उपलब्ध है।

चाटुकारिता, जिसे ठेठ भाषा में तेल लगाना भी कहते हैं, एक ऐसी अति वांक्षित योग्यता है जो पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रख रहे लोगों के लिए अकथित रूप से बेहद आवश्यक है। जिसे जितनी अच्छी तरह से तेल लगाना आता है, अधिकृत पत्रकारिता में उसकी तरक्की के विकल्प उतने ही ज्यादा होते हैं। इस कला के बिना कम से कम पत्रकारिता के क्षेत्र में टिक पाना तो लगभग असंभव होता है। यह महज एक अनुभव नहीं है। इस तथ्य को पूरे पत्रकारिता जगत में मौन स्वीकृति प्राप्त है। हर वो श़ख्स जो अपने शुरुआती दिनों तेल लगाना पसंद नहीं करता, वह सीनियर हो जाने पर अपने अधीनस्थों से तेल लगवाने का शौक जरूर रखता है।
पत्रकारिता के बाहरी रुतबे व कद को देखकर और उस पर आकर्षित होकर तमाम युवा पत्रकारिता को अपने कैरियर के रूप में चुनते हैं। देशभक्ति-भाईचारे और सहिष्णुता के भावों से लबरेज होकर वे पत्रकार बनने का सपना संजोते हैं मगर बाद में इसके (पत्रकारिता के) वर्तमान स्वरूप की सच्चाई से वाकिफ होकर उन्हें अपने आस-पास के वातावरण से घिन आने लगती है। काफी दिन तक वह युवा संघर्ष करता है और सिस्टम में बदलाव लाने की हरसंभव कोशिश करता है मगर हालात यह होते हैं कि सिस्टम में नीचे से ऊपर तक मौजूद तेल के शौकीन लोग हर कीमत पर इस सुख का आनंद लेना चाहते हैं। ऐसे में उक्त युवा इस वातावरण को समझने का प्रयास करते-करते न चाहते हुए भी उसमें ढल जाता है। सिस्टम बदलने का उसका सपना, सिर्फ सपना ही रह जाता है और उसमें वक्त गुजरने के साथ धूल की पर्त जमने लगती है। फलस्वरूप परिवर्तन का उसका सपना खामोशी से दम तोड़ देता है।
कुछ युवा तो अपने कैरियर के शुरुआत में कुछ दिनों तक यह समझकर भी अपने सीनियर या बॉस द्वारा आदेशित हर काम को खुशी से करते रहते हैं कि उन्हें इससे कुछ सीखने को मिलेगा। मगर इसके विपरीत सीनियर्स सिखाने के नाम पर उस जूनियर को अपना चपरासी समझने लगते हैं। कुछ समय बाद जब वह जूनियर उनके हर एक आदेश को मानने से मना करने लगता है तो फिर मन-मोटाव और टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कई बार तो संस्थान छोड़ने की भी नौबत आ जाती है।
एक बात और गौर करने वाली है कि जो लोग अपने प्रारंभिक दिनों में यह सहते हैं, वे सीनियर हो जाने पर दूसरों से (जूनियरों से) इसकी उम्मीद करते हैं। उनमें मन ही मन एक चिढ़ भरी रहती है जो धीरे-धीरे अवसाद का रूप अख्तियार कर लेती है।
पत्रकारिता जगत में अमूमन चाटुकारों को ही वेतनवृद्धि भी नसीब होती है, अन्यथा इस क्षेत्र में चाहे जितने दिन गुजर जाएं, वेतन उतना का उतना ही रह जाता है। बॉस के लुक की तारीफ, उसके लहजे की सराहना, उसके काम करने के ढंग की बड़ाई, हर बात में बॉस की जीहुजूरी और यह कहना कि मुझे तो आपके साथ काम करने में सबसे ज्यादा अच्छा लगता है, आदि कथन अखबारों और टीवी चैनलों के आफिसों में आम बातें हो गईं हैं। आधुनिक पत्रकारिता के गुणात्मक और चारित्रिक क्षरण की भी यही वजह है कि हम भविष्य में हो सकने वाले छोटे से फायदे के लिए हर वह बात स्वीकार कर लेते हैं जिसे हम एकदम पसंद नहीं करते।
कुछ युवा (नए पत्रकार) ऐसे भी होते हैं जो अपनी योग्यता को ही सर्वोपरि रखते हैं और किसी भी कीमत पर चाटुकारिता को बढ़वा नहीं देते। पहले तो तमाम उपाय करके उनके तरीके को बदलने की या उन्हें सिस्टम से बाहर कर देने की कोशिश की जाती है मगर फिर भी न झुकने पर आखिरकार उसके तेवरों को स्वीकार कर लिया जाता है और फिर उस युवा पत्रकार का सिक्का जम जाता है। तदुपरांत उस संस्थान का गुणात्मक सुधार होने लगता है।
पत्रकारिता को चाटुकारिता के चंगुल से अगर कोई छुड़ा सकता है तो वह है आज की युवा पीढ़ी। हम युवाओं को चाहिए कि हम बड़े-बुजुर्गों की काबलियत और उम्र का लिहाज तो करें मगर यदि कोई हमें अपना चाटुकार या वैचारिक चपरासी बनाना चाहे तो हम न सिर्फ उसका विरोध करें, बल्कि ऐसी तुच्छ मानसिकता के लोगों को मुंहतोड़ जवाब भी दें।
आइए! हम उठ खड़े हों उन लोगों के खिलाफ जो पत्रकारिता को अपने पैर की जूती समझते हैं। हमें सबक सिखाना होगा उन मुट्ठी भर लोगों को जो पत्रकारिता को जेब में भर कर टहलने का दावा करते हैं। क्योंकि यही वर्तमान समाज की जरूरत भी है मजबूरी भी।

Wednesday, December 2, 2009

वो बचपन के दिन...

बचपन में एक सवाल बहुत पूछा जाता था कि बड़े होकर क्या बनना चाहते हो? जवाब होते थे- डॉक्टर, इंजीनियर, पायलट......। लेकिन यही सवाल अगर अब पूछा जाए तो जवाब होगा कि माफ करें, हम बड़े होना ही नहीं चाहते थे। बचपन में बड़े होने की ललक, बड़े होने पर मिलने वाले झंझावातों से एकदम अनजान थी। शायद इसी कारण बचपन को जी भर के जी नहीं पाए और अब अफसोस के आंसू बहा रहे हैं। हमारा बचपन हमसे हाथ छुड़ाकर दूर चला गया और हमें न चाहते हुए भी उसे अलविदा कहना पड़ा। वजह कुछ भी हो मगर कभी-कभी यह महसूस होता है कि हमने खुद के साथ बहुत ज्यादती की। बचपन की चंद सुहानी यादों पर सब कुछ कुर्बान कर देने को जी करता है। मगर जिंदगी की उधेड़बुनें हमें बचपन की यादों में खो जाने के लिए कभी अकेला नहीं छोड़तीं। वर्तमान के झंझट और भविष्य की महत्वाकांक्षाओं ने कभी अतीत के बारे में ठीक से सोचने का मौका ही नहीं दिया। लेकिन चलिए, फिर भी कोशिश करते हैं। आइए कोशिश करते हैं, फिर उसी आयु वर्ग में शामिल होने की, जब हम सिर्फ अपनी सुनते थे। न किसी के दबाव का असर था और न कोई मजबूरी। वे दिन, जब सुबह उठते ही खेलकूद की योजना बनाते थे और स्कूल से आते ही योजनाओं के क्रियान्वयन में जुट जाते थे। मां के लाख मना करने पर भी पिछवाड़े के मैदान में खेलने चले जाना, जी भर के खेलना और घर वापस आने पर मां की डांट सुनकर बड़े-बड़े आंसू टपकाना, माफी मांगना और फिर मां के गले से लिपट जाना, शाम होते ही पलकों का बोझिल हो जाना और बिस्तर में लेटते ही गहरी नींद और ख्वाबों में खो जाना फिर सुबह होने पर मां का धीरे से थपकी देकर उठाना। हर दिन यही दिनचर्या, यही मौजमस्ती। थोड़ा वक्त गुजरा और बचपन की कोमलता कब कठोरता में तब्दील हो गई, कुछ पता ही नहीं चला। लड़कपन एक ठंडी हवा के झोंके की तरह मनभावन एहसास देकर चलता बना। जिम्मेदारियों के बोझ और उम्र ने हमें अपने पैरों पर खड़ा कर दिया। गुड्डे-गुड़िया फेंक कर हमने असल जिंदगी के खेल खेलने शुरू कर दिए। सैर-सपाटे और मौजमस्ती से नाता तोड़कर फर्ज और मजबूरियों का लबादा ओढ़ लिया। खैर, छोटे-बड़े और ऊंच-नीच के खयालों से दूर उस बचपन को भला कौन भूल सकता है जब हम अपने प्यारे पपी को भी अपने साथ अपने बिस्तर में ही सुलाने के लिए आतुर रहते थे। कहीं भी जाना हो, उसका साथ होना जरूरी था। ये अलग बात कि हम बड़े हो गए मगर इस बड़प्पन ने हमसे हमारी मासूमियत को छीन लिया। ऐसी मासूमियत कि किसी अजनबी आदमी को भी रोते हुए देख कर अपने आंसू नहीं रोक पाते थे और यूं ही पलकें गीली हो जाती थीं। हम बड़े तो हो गए मगर दिल की तमाम परतों के नीचे कहीं एक बच्चा जिंदा है जो बचपन के खयाल भर से ही बल्लियों उछल जाता है और उस पल को हमारा मन दीन-दुनिया की सारी बातें भुला कर कुलांचे भरने लगता है। हम जब भी किसी बच्चे को शरारत करते हुए देखते हैं तो मन करता कि हम भी उसकी अठखेलियों में श़रीक हो जाएं। एक बार फिर से निकल जाएं पड़ोस के बाग से अमरूद चुराने। मोहल्ले के बच्चों को इकट्ठा करें और शुरू हो जाए ‘अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो’ या फिर दौड़ चलें कोई कटी हुई पतंग लूटने और उसे लूट कर इतनी खुशी पाएं कि जैसे सारा जहान जीत लिया हो। तो आइए दोस्तो, हम दुनिया और समाज के ताने-बाने में फंसे होने का रोना छोड़कर डूब जाएं उस हसीन बचपन के दिलकश एहसास में, जिसको उम्र गुजरने के साथ-साथ हमने कहीं खो दिया था . . . . . . . . . . . . .